Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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सजावट देख वह मन ही मन बहुत हर्षायमान हुआ; वह मंजिल चांदीका बना हुआ था। दूसरा मंजिल सोनका था उसे मोतियांस जड़ा हुआ चमचमाता देख राजा · मन ही मन संकुचित होता
और सोचने लगता कि मेरे राज्यमें इतनी बड़ी विभूतिका स्वामी बसता है यह विभूति तो मेरे पास भी नहीं है यह पुरुष धन्य है
और मैं भी धन्य हूं कि मेरे राज्यमें ऐसे भाग्यशाली पुरुषका निवास है। इसप्रकार एकके बाद एक मंजिलको पार करता हुआ राजा श्रेणिक सेठानी भद्राके साथ चौथे मंजिल पर पहुंचा जो स्फटिकका बना हुआ था। इस मंजिल पर आते ही राजाको शका हुई कि यह तो अथाह पानासे भरा है इसकी परीक्षाके लिये राजा न अपनी हीरेकी अंगूठो उसमें डाली, अंगूठीका आवाज तो हुआ मगर अंगूठो स्फटिक के तेजमें अदृश्य हो गई । तब राजा अंगूठी देखने के लिये चकाचौंधसा हो गया। फिर कर लब भद्राने पूछा महाराज ! क्या हुआ तब राजा बोला कि 'मेरी हीरकी अंगूठी यहां गिर गई है उसे देख रहा हूं। तब तो भद्राने उत्तर दिया । महाराज ! घबराइये न यहीं विराजिये अब आगे जाना तो और भी कठिन है शालिभद्र तो सातवें मंजिल पर रहता है।
राजाको वहीं बैठाकर पहले तो भद्राने एक छाब अंगूठियोंकी मरकर लाई और विनयपूर्वक राजाको निवेदन दिया कि 'महाराज ! आपकी अंगूठो तो मिलना कठिन है मगर इस छालमें जो अंगूठी आपके मन भावे उसे गृहण कीजिये इतना कह कह शालिभद्र के पास गई और उसे कहा बेटा । अपने यहां नगरनाथराजा श्रेणिक पधारे हैं उनसे मिलने चलो। तब तब शालिभद्र बोला माता ! क्या मेरे ऊपर भी कोई नाथ है ? मैं तो अभी तक अपने को ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com