Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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के अगूंठसे मेरु पर्वतको किञ्चत् हिला दिया । तबतो एकदम इन्द्रका सन्देह दूर होगया पश्चात् प्रभुके अतुलनीय बल पर मुग्ध हो, भूरि भूरि प्रसंशा करते हुए इन्द्रने भगवान वर्द्धमान का नाम महावीर रख दिया । तबही से भगवान वर्द्धमान महावीर नामसे प्रसिद्धि पाने लगे।
यों तो भगवान महावीर की आल्यावस्थाके साहस और वीरता को छोटी-मोटी अनेक कौतुकजनक बातें शास्त्रोंमें उपलब्ध हैं; परन्तु हम यहां उनके बलका एक दूसरा उदाहरण बतलाना चाहते हैं जिससे यहभी शिक्षा मिलती है कि छल कपट वाले शत्रू को प्रहार करके परास्त करने या दंड देने में कोई अन्याय या पाप नहीं।
एक समय ग्रामके कुछ बालक अपने बचपन में बालक्रीड़ा कर रहे थे । उनका खेल इस प्रकार था कि एक लड़का वृक्षपर चढ़ जाता था और दूसरे लड़के उसे छूने के लिये वृक्षपर चढ़ते जो लड़का उसे छू लेता तब वह लड़का उसकी पीठकर चढ़कर नियमित दूरतक जाता और वहां उसे छोड़ आता था। भगवान महावीरकी अवस्था तब साडेसात वर्षकी थी तब वे भी इस खेलमें एक दिन सम्मिलित हुए । जिस समय यह खेल हो रहा था उस समय इन्द्र ने अपनी सभामें भगवानके अतुलनीय बलकी प्रसंशाकी । उसपर एक देव बहुत क्रोधित हुआ और प्रभुके बल की परीक्षा करने के लिये पूर्णवमसे वह धरातल पर उतर आया उस देवने तुरन्त बालरूप धारण किया और उक्त बालकोड़ामें प्रभुके साथ शामिल होगया। खेलते-खेलते योगानुयोग भगवान महाबीरको उस देवकी पीठपर चढ़नेकी पारी आई। ज्योंही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com