Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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पहले प्रभुकी असाधारण विद्या, अलौकिक प्रतिभा और प्रचंड वीरताका उपयोग राजकाज संचालनमें होता था परन्तु अब उन्हीं शक्तियोंका सदुपयोग जगतकी स्थिति, हित और उत्थानमें होगा । संसारकी दसों-दिशाओंमें अब समता उनकी साथिन बनेगी।
जब प्रभुने दीक्षा धारणकी उस समय भगवानके बदनपर इन्द्रने जो वस्त्र रखाथा वह केवल एक वर्ष तक रहा। बाद में भगवान महावीर दिगम्बर अवस्थामें स्वतंत्र बिहार करने लगे। परन्तु अपूर्व अतिशयके कारण किसीको नग्न नहीं दिखते थे । उनका दृश्यही अलौकिक था ।
अब उक्त कथित निश्चय को पूर्णरूपसे पालन करने के लिये भगवानने द्रव्य और भावसे प्रायः मौनव्रतको ही धारण किया । जब तक प्रभुकी छमस्थ अवस्था रही तब तक अनेक प्रकारके कष्ट सहते हुए प्रभुने इसी वृतका पालन किया। यह छद्मस्थ अवस्था लगभग बारह वर्ष पर्यंत रही।
नोट-केवल ज्ञान प्रगट होनेके पूर्वकी अवस्था छद्मस्थ अवस्था कहलाती है। तीर्थकरोके जीवनमें और दृश्यमें कुछ अलौकिक विशेषताएं होती है जिन्हें उनका अतिशय कहा जाता है।
प्रथम बिहार और उपसर्ग लक्ष्मी की परवाह न रखते, भले बुरेका ख्याल नहीं । मृत्यु खड़ी दरवाजे पर हो, तो भी डरका काम नहीं ।। लालच, भयके चक्र जिन्होंपर, चलते निशदिन जहां कहीं।
तो भी न्याय मार्गसे विचलित, होते हैं नर चीर नहीं ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com