Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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प्रभुके उत्कट तपोबलके सामने, देव होकर भी जब संगमकी राक्षसी क्रियाएं और प्रयत्न सब विफल हो चुके तब तो उसने मनुशरारके बिल्कुल अनुकूल काम वासनाके प्रखरतम प्रयोगोंका वार करना प्रारम्भ किया । उसने अपना मायासे चारों ओर वसन्त ऋतु की रचना कर दी। फिर नाना प्रकारके कामोत्तेजक पदार्थोसे उस चनस्थलको परिपूरित कर दिया । पश्चात संगमने कामकलाओं में पारंगत, रूपलावण्यमें अनुपम और पूर्ण यौवन सम्पन्न कामिनियों को एकत्रित कर वहां एक बड़ी संख्यामें उपस्थित कर दिया ।
____ अब तो भगवान के आस पास उस फूलो फली वसन्तमें चंचल और दीर्घ नयनोंव ली, यौवन के अभिमानने माती, पतलो कमर और लंबे केस वाली, और तत्क्षण कामोद्दीपन करने वाली युवतियां अपने हाव भावसे प्रभुको मोहने लगों। कोई गाती हुई, कोई बजाती हुई, कोई-कोई नृत्य करती हुई, कोई मनचलो कामिनो गाढ आलिंगन कर प्रभुझी कामवासनाको जागृत करने लगी। कोई-कोई गल बहियां डालकर मधुर मधुर बातें कह कह कर प्रभु को फुललाने लगी। परन्तु इन सबके हाव, भाव, कटाक्ष और कारनामे सब फूस की राख के समान बेकाम हुए। इन बातोंका प्रभु पर लेशमात्र भी असर न हुआ। वे तो अपने ध्यान में हिमाचल के समान अटल के अटल ही बने रहे।
_अभीतक तो उस संगम देवकी सम्पूर्ण शक्तियोंका प्रभु के प्रागे भारी अपमान हुआ परन्तु उसकी डाहमें कमी न हुई । संपूर्णतया हर एक प्रयोगोंमें परास्त हो अब वह चिंतातुर साचने लगा कि " माह होने आये मेरी हार पर हार ही होती गई। मैं स्वर्ग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com