Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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हूं, मेरा नाम कौन नहीं जानता । मेरे प्रकाण्ड पांडित्यकी चर्चा तो चारों ओर फैल रही है कहीं इन्होंने भी मेरा नाम, गोत्र समवसरण में प्रवेश करते वक्त किसी से सुन लिया होगा। इनकी सर्वज्ञता तो मैं तव मानूं, जब ये मेरे मनोगत भावोंको अक्षरशः पूरे-पूरे बता दें।"
इतना विचार इन्द्रभूति के मनमें आते ही भगवान बोले पांडतराज ! 'जीव है या नहीं यह सवाल तुम्हें सता रहा है। चदों की साधक और बाधक ऋचाओं को पढ़कर श्रापका मन संदेहसे भरा हुआ है । परन्तु आपने वेद वाक्योंको भली भांति समझा ही नहीं। चिन्ता दूर कीजिये और उन्हीं ऋचाओंकर चास्तविक अर्थ समझकर अपने संदेह को मिटाइये ।"
तदनन्तर सर्वज्ञ भगव.नने उन्हीं ऋचाओंके अर्थकी विस्तारपूर्वक व्याख्या कर इन्द्रभूतिका सन्देह दूर किया। उन्होंने सिद्ध किया कि जो जानता है और देखता है वही जीव है और शरीर तो वस्त्रादिकी तरह केवल उपभोगकी वस्तु है। इसका पूर्ण विवरण जैन-शस्त्रों में उत्तम रीतिसे कल्पसूत्र और भगवती आदि सूत्रों में पाया जाता है। जिस शंकाके सिन्धुमें इन्द्रभूति गौतम वर्षोंसे गोते 'लगा रहा था, वह भगवानके सदोपदेशसे बातकी बातमें किनारे
आ लगा । अव भगवान महवीरकी सर्वज्ञामें उसे जरा भी संदेह न रहा, बल्कि उसके पांडित्यका अभिनान भी चूर-चूर हो गया। उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया । फिर तो उसने भगवानको नम्रतापूर्वक नमन किया । और उनका शिष्य होकर दीक्षित होनेकी पुताट अभिलाषा प्रकट की । योग्य अधिकारी जान प्रभुने इन्द्रभूति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com