Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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और दुर्मुख दो मिथ्यादृष्टि सेनापति आपसमें बातचीत करते हुए आगे-आग चल रहे थे । मार्गमें उन्होंने प्रसन्नचन्द्र मुनिको एक पैर पर खड़े और ऊंचे हाथ किये हुए; आतापना करते हुए देखा । उन्हें देखकर सुमुख बोला; 'ऐसी कठिन तपस्या करनेवालेके लिए स्वर्ग और मोक्ष कुछ भी दुर्लभ नहीं है।' यह सुनकर दुर्मुख बोला,
अरे यह तो पोतनपुरका राजा प्रसन्नचन्द्र है। इसने अपने छोटे से लड़केको अपना बड़ा राज्य देकर कितनी विपत्तिमें डाल दिया है । उसके मन्त्री चम्पानगरीके राजा दधिवाहनसे जा मिले हैं और उन्होंने उसका राज्य छुड़ा लेनेके लिए उसपर चढ़ाई कर दी है। इसी प्रकार इसकी रानियां भी राज्य छोड़कर चली गई हैं। यह कोई धर्म है ।' इन वचनोंने प्रसन्नचन्द्र के ध्यानको विचलित कर दिया और वे सोचने लगे 'अरे मेरे उन अकृतज्ञ मंत्रियोंको बारम्बार धिक्कार है। यदि इस समय मैं वहां उपस्थित होता तो उन्हें इस विश्वासघातका फल चखाता ।' ऐसे संकल्प विकल्पोंसे व्याकुल होकर प्रसन्नचन्द्र मुनि अपने मुनित्राको भूल गये और अपने को राजा समझकर मन ही मन मंत्रियों के साथ युद्ध करने लगे।
इतने ही में राजा श्रेणिककी सवारी वहां आ पहुंची और उसने प्रसन्नचन्द्र मुनिकी विनयपूर्वक वन्दना की। वहांसे चलकर वह वीर प्रभुके समीप आया और दर्शन, वंदनाकर विनय सहित उसने प्रभुसे पूछा, 'हे प्रभु ! इस प्रकार उग्र अवस्थामें यदि मुनि प्रसन्नचन्द्रकी मृत्यु हो जावे तो उन्हें कौन सी गति प्राप्त होगी ? प्रभुने उत्तर दिया कि वे सातवें नरफमें जायंगे ।' यह सुनकर राजा श्रेणिक बड़े विचारमें पड़ गये। क्योंकि राजा श्रेणिकने यह सुना था कि मुनि कभी नर्कमें जाते ही नहीं । अतएव उसने सोचा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com