Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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एक दिन जब सदालके नौकर उसके बनाये हुए मिट्टीके बरतनों को धूपमें सुखा रहे थे, तब प्रभुने पूछा "सदाल ! कहो ये वर्तन किस प्रकार हैं ?" सदालने उत्तर दिया, "पहले मिट्टी लाया, उसमें पानी और राख मिलाई, फिर उसकी लुगदी चाक पर चढ़ाकर इच्छानुकूल बर्तन बना लिये गये ।' इसपर प्रभुने फिर पूछा, "सदाल ! इनके बनानेमें बल, वीर्य, पुरुषार्थ, परिश्रमादि लगे या नहीं; या ये योहीं बनकर तैयार हो गये ।” सदाल बोला "नहीं प्रभु ! ये योंही बनकर तैयार हो गये; यही तो मेरे गुरुका सिद्धान्त है । जो वस्तु भावीके बल जैसी भी वह होती है, होकर रहती है। उसमें किसी भी प्रकारके क्रियाकांड और परिश्रमका अवलम्बन नहीं माना जाता ।" इसपर प्रभुने उससे कहा "क्यों सद्दाल । यदि तेरे इन बर्तनों को कोई चोर उठा ले जावे; या इन्हें कोई तोड़-फोड़ डाले; अथवा कोई आकर तेरी स्त्रीका सतीत्व हरना चाहे तो इनमेंसे प्रत्येक व्यक्ति के साथ तू किस प्रकार वर्ताव करेगा ?" सदालने कहा "भगवान् बावकी बात ही क्या ? उसे तो लात, चूंसे थप्पड़ोंसे सीधा करूंगा और बने तो जिन्दा भी न छोडूंगा।" प्रभु बोले "सदाल ! विचार कर बोल । तू स्वयं अपने सिद्धान्तों की हत्या न कर । तेरे सिद्धान्त के अनुसार तो जो होने वाला होता है वह तो होकर ही रहता है। बर्तनोंका चुराना, तोड़ना फोड़ना, पत्नीके पातित्रत धर्म को हानि पहुंचाना इत्यादि, विना किसी प्रकारके उत्थान बल, वीर्य, पुरुषार्थके तेरे मतानुसार होने वाला है वह तो होकर ही रहेगा । तुझे उन्हें रोकने के लिये लात, धूंसे और जान लेने की आवश्यकता ही क्या है।" प्रभुकी इस बाणीको सुन सद्दालका भ्रम दूर हो गया। उसने अपने सिद्धान्तका खोखलापन जान लिया । वह प्रभुके चरणों में आ गिरा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com