Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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वृतकी प्रत निवृत्ति मार्गके त्या प्रवृत्ति संसारमें
व्रतकी प्रवृत्ति आत्म-कल्याणमें वाधक न बनकर साधक बन गई। प्रवृत्ति मार्गमें निवृत्ति मार्गके त्याग, तप, संयमादि का समावेश उचित रीतिसे हो जानेके कारण प्रवृत्ति संसारमें लिप्त हो जाने के वातावरणसे बच गयी।
तदनुसार भगवान महावीरने समाजको, गृहस्थ और मुनि, इन दो भागों में विभक्त किया । गृहस्थके लिये अणुव्रतों का तथा मुनियोंको महाव्रत पालन करने का आदेश दिया । ब्रत दोनों के लिये समान हैं; अन्तर केवल इतना ही है कि उन्होंने गृहस्थ के लिये वेही पांच व्रत स्थूल रूप से अपनी शक्ति और परिस्थितिके अनुसार द्रव्य, काल, भाव, क्षेत्र को लक्षमें रखकर पुरुषार्थ सहित पालन करने का आदेश दिया तथा मुनिके लिये वे ही पांच व्रत पूर्ण रूपसे पालन करने का उपदेश दिया। इस प्रकार मुनि धर्म के साथ ही साथ प्रभुने श्रावक धर्म का भी उपदेश देना
आरंभ किया । आनन्द श्रावकके पश्चात् भगवानने चम्पानगरीमें कामदेवजी श्रावकको श्रावक धर्मका महत्व समझाया। उनके पास अठारह करोड़ सोनैयोंकी सम्पति थी। प्रभु सतोपदेशसे उन्होंने सब प्रकारके प्रमादोंका त्याग कर दिया; और प्रभुके उत्तम श्रावक बन गये। वाणारसी और अ.लम्बिकामें भगवानके उपदेशसे भिन्नभिन्न वस्तियों में चुलणोपियाजी, सुरादेवजी चूलशतकादिने श्रावकों के उत्तम बारह धर्मों को धारण किया । फिर भगवान कपिलपुर पधारे । वहां कुंड कौलिकको धर्मोपदेश दिया। यह कुण्डकौलिक ग्यारह करोड़ सौनयोंका स्वामी था और इनके पास साठ हजार गायें भी थीं। भगवानके उपदेशका इन पर' इतना प्रभाव पड़ा कि वे उसी दिनसे श्रावक धर्म पालते हुए जप, तप, संयमादि की उत्तम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com