Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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ही तत्कालीन द्रव्य, काल, क्षेत्र और भावानुसार सत्य संदेश भिन्न भिन्न दृष्टि कोणोंसे समझाया। उन्होंने अपने आदर्श उदाहरणसे बतलाया कि घृणा ही सबसे अधिक त्याज्य है घृणा ही सर्वनाशका कारण है । घृणाको नीव हिंसा है जो सर्वपापोंका मूल है । इसलिये किसीसे घृणा मत करो । संसारमें घृणित वह है जो घृणा करता है क्योंकि उसका हृदय घृणासे घृणित है और उसीके वशीभून वह संसारमें दुःख क्लेश और अशान्तिकी बाढ़ ले आता है । चतना आत्मा प्राणीमात्रमें वर्तमान है और वह सवही अन्तः करणोंमें एकसा प्रकाश करती है। इसलिये किसीको किसी के प्रति घृणा करनेका कोई अधिकार नहीं है।
भगवान का आदर्श सिद्धान्त क्षणिक नहीं था, वे परिणामदर्शी थे। उनकी धार्मिक भावनामें लोक कल्याण का हेतु थां । जिसको नांव केवल सत्य, विशुद्ध प्रेम, निःस्यार्थ भावना और आहेसाके सुदृढ पायों पर रची हुई थी।
भगवान महावारके सिद्धान्तमें आत्मज्ञान, अध्यात्मज्ञान, तत्त्वज्ञान, विज्ञान और स्याद्वाद का पूर्ण समावेश होने के कारण ही उन्हें परिपूर्ण सफलता मिली और जैन धर्म पुनः पूर्णरूपसे विकसित होने लगा। बड़े बड़े राजा महाराजा एवं धुरंधर विद्वान वेदान्तके ज्ञाता भगवानके अहिंसारूपी भंडेके नीचे आ गये, और गोशालाका चलाया हुआ "आजीविक" और बुद्धका "वौद्ध धर्म" जो भगवान महावीर को केवल ज्ञान प्राप्त होने के पहले बहुन वेगसे प्रचलित हो चुके थे, “अहिंसा परमो धर्मः" का सिद्धान्त पालन करते हुए भी, आत्मज्ञान शून्य होनेके करण शीघ्र उदय होकर अस्त हो गये या उनका रूपान्तर हो गया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com