Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 74
________________ ७६ में जाकर अब मुंह कैसे दिखाऊंगा । वहांसे तो मैं घमंड पूर्वक इन्द्र महाराजके कथनका खंडन करने आया था, परन्तु यहां तो अनेकों बार मुझे पूर्ण हताश होना पड़ा । पूर्ण छै मासके दमनचक्रके बाद भी मुझे यहांसे निर्लज्ज और निराश होकर स्वग में जाना पड़ेगा । यह तो बड़े गजबका मनुष्य है । अबकी बार एक और परीक्षा करता हूं।" यह कहकर वह संगम देव वहांसे चला । इतबार भगवानकी छै माही तपस्या पूर्ण हुई। फिर भगवान अहार लेनेको गोकुल ग्राममें पधारे । उस ग्राममें जहां जहां प्रभु उस समय अहार लेने गये वहां वहां संगमने निर्दोष अहारको अपनी मायासे दोषयुक्त कर दिया । तब तो बिना अहार पानी लिये ही प्रभु अपनी पूर्ववत शान्तिमें स्थिर रहे। संगम कदाचित् यह समझना था कि छै महीने तक अखंड तप-य करके अब इन्हें अहार न मिलेगा तो ये अवश्य डिगामगा जावेंगे और इनका क्रोध संदीप्त हो जायगा । परन्तु भगवान तो अन्ततः वीर हो थे, उन्होंने उसके प्रति कुछ भो द्वेष न किया । तब तो अतुलनीय सहनशक्त अनुपम साधुवृत्ति और अटल निश्चय और उत्कट सत्याग्रह देख संगमका हृदय चूर-चूर हो गया। अब इन्द्र द्वारा प्रसंशिा भगवान के प्रति उसकी भक्ति जागृत हुई । वह प्रभु के पास आया और अपने इतने कड़े और भयंकर अपराधोंकी क्षमा याचना करने लगा प्रभुने उसे अपनी शान दृष्टि से क्षमा प्रदान की। तदनन्तर संगन अपने कृत अपराधों पर लजित हो स्वर्गको चला गया। इधर संगमके चले जानेपर भगवानने उसी गोकुल ग्राममें एक गोपिका के घर अहार ग्रहण किया। इस प्रकार कठिन से कठिन तपस्वियों, तेजस्वियों और शूरवीरोंके मनको क्षण भरमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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