Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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बिना चुकाय काम ही नहीं चलता । पूर्व भवमें जब प्रभु त्रिपृष्ट चासुदेव थे उसी समय यह ग्वाल एक शय्यापालक था । उस त्रिपृष्ट वासुदेवके भवमें प्रभुने, राजमदमें आ कर एक छोटेसे अपराध के कारण, गरमागरम सीसा पिघलाकर उस शय्यापालके कानों में डलवाया था। उसी का बदला अाज प्रभु चुका रहे हैं। इतनी कडो वेदना होने पर भी प्रभु जरा भी चल विचल न हुए। वल्कि अपने निश्चय चित्त और अमोघ धैर्य के साथ ज्यों के त्यों अटल ध्यानस्थ खड़े रहे।
जब प्रभुकी ध्यान मुद्रा खुली तो उन्होंने वहां से पड़ोसकी एक दूसरी बस्तीकी ओर बिहार कर दिया । वहा 'खाफ' नामका वैद्य रहता था । उसने प्रभुकी मुखाकृति देखकर पहचाना कि प्रभुको अवश्य कोई शारीरिक पीड़ा है। तत्काल उसने प्रभु के शरीरको देखा तो उसे कानों में दो कीलें दिखाई दी। इस दृश्यको देख वह कांप उठा और सिद्धार्थ नामक सेठकी सहायतासे भगवानके कानों की कीलें बाहर निकालकर फेंक दी। जिससे भगवान की पीड़ा दूर हुई और खाक वैद्यको भारी पुण्य बंध हुआ।
प्रभुको केवल ज्ञान
भगवान महावीरने पूर्ण साढ़े बारह वर्षतक भयंकरसे भयंकर उपसर्गोको सहन किया । उन्होंने उम्र से उम्र तपस्या धारण कर अपने पूर्वोपार्जित काँका बदला हंसते-हंसते चुका दिया। इन साढ़े बारह वर्षोमें प्रभुने पूर्ण एक वर्ष भी भोजन नहीं किया । इस अघसरमें शत्रुनोंने भारोसे भारी आक्रमण प्रभुपर किये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com