Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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जो कुछ संतोष है वह केवल तुम्हारे समीप रहनेसे है । अत: अभी कुछ दिन और ठहरो तथा राजकाज चलाने में कुछ सहायता करो जिससे परिजनोमें संतोष और प्रजाजनोमें सुखका सञ्चार हो प्रभु वर्धमानने अपने पिता तुल्य ज्येष्ट बन्धुकी बात मानकर कुछ कालके लिये गृहवासमें ही साधु जीवन विताना प्रारंभ किया । जब एक वर्ष व्यतीत हो चुका तव लोकान्तिकदेवने आकर भगवान से विन्तीकी कि 'प्रभु ! संसारमें अज्ञानान्धकार फैल रहा है। जनता आपमें एक महापुरुषकी छवि निहार रही है। लोकमें शान्ति स्थापित करना परम आवश्यक है। इसलिये दीक्षा ग्रहणकर जगतके दुःखी जीवों को सुखका मार्ग दर्शाइये इत्यादि ।' ___ लोकान्तिकदेवके उस प्रकार वचन सुनकर अपने ज्येष्ट बन्धु नन्दिवर्धनकी आज्ञा से भगवानने एक वर्ष तक नित्यप्रति वर्षावर्षीय महादान देना आरंभ किया। एक वर्षमें यह दान करोंड़ों मोहरोंका हुआ जिसे पाकर याचकवृन्द भी महान हुए। दान द्वारा इसप्रकार त्याग करना अथवा परिग्रह रहित होना मोक्षमार्ग में संलग्न होने की पहली सीढ़ी थी।
पश्चात् भगवान महावीरने नरनरेद्र तथा देवदेवेन्द्र द्वारा रचित महामहोत्सवपूर्वक अगहन बदी दशमीके दिन स्वयं दीक्षा धारणकी । उसी समय भगवानको चौथा मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ।
नोट-जैन लोग ज्ञानके पांच भेद मानते हैं (१) मतिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनःपर्यवज्ञान और (५) केवल ज्ञान अर्थात् सर्वज्ञ अवस्था ।
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