Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
View full book text
________________
न था। तब तो सर्पको बड़ा आश्चर्य हुआ। पहले तो उसे अपने विषप्रयोगका भारी गर्व था, परन्तु भगवानको बिलकुल स्वस्थ और शान्त रूपमें खड़ा हुआ देख उसका सारा गर्व चूर-चूर हो गया । फिर भी उसने अपनी शक्तिकी एक बार और परीक्षा की। उसने अबकी बार लपक लपककर भगवानके शरीरमें इधर-उधर पूर्ण वेगसे काटकर उन्हें धराशायी करना चाहा । परन्तु आत्मबल के सामने उसे इसवार भी पूर्ववत विफलता ही मिली ।
अवतो सर्प टकटकी लगाकर प्रभुके तरफ देखने लगा। इतने कड़े उपसर्गके बादभी उसने प्रभुके मुख मंडल पर शान्ति क्षमा और दयाकी उज्वल ज्योति ही देखी । इस अनोखे दृश्य को देखते ही सर्प तो मुग्धसा बन गया । उसके मनके परिणाम प्रापस आप बदलने लगे। उसका अन्तःकरण स्वच्छ और निर्मल होने लगा जैसे जैसे वह भगवानको निहारता वैसे वैसे उसकी विषमयी करता विलीन और मनके परिणाम शुद्ध होकर उत्तम उत्तम भावनाएं जाग्रत होने लगी। अब सर्प की आत्माने पलटा खाया । बस उसका यही दृष्टिकोण तो भगवानको अपनी आत्मशक्तिसे पलटाना था कि सपने आत्मकल्याणकी ओर चष्टि फेरी ।
जब भगवानकी थ्यान मुद्रा खुली तब वे बोले रे चण्ड कौशिक ! समझ । समझ । तू अपने पूर्व भवको स्मरण कर और इस भवमें की हुई भूलों पर पश्चाताप कर । सोच तू कौन है, कहांसे पाया है और क्या कर रहा है ? इत्यादि भगवानके शान्ति मय वचन सुनतेही उसे 'जाति स्मरण ' ज्ञान उत्पन्न होगया जिसके आधारसे उसे अपने पूर्वभवका स्मरण हो आया । उसने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com