Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 55
________________ ५७ उन्होंने उसी मार्गसे जानेका निश्चय कर लिया। उन्होंने सोचा कि उस सर्प के अन्दर इतनी भारी शक्ति है और वह उसका दुरुपयोग कर रहा है यदि उसे किसी तरह बोध होजावे तो वह उसी शक्ति द्वारा सदुपयोग करके अपना कल्याण भी कर सकता है। क्योंकि शक्तितो अात्माका निजगुण है । जिस शक्तिले जीव घोर नर्फको नीव डालता है उसी शक्ति द्वारा वह मोक्षमा प्राप्तकर सकता है। ऐसा विचारकर भगवान उसी सर्प की ओर रवाना हो गये और उसकी बामीपर जाकर ध्यान लगा दिया। भगवान को ध्यान लगाये जब कुछ समय बीत चुका तब वह सर्प भी अपनो बामोसे बाहर निकला। वहांसे बाहर निकलनेही उसकी डोष्ट ध्यानस्थ प्रभु पर पड़ी । बस उसके क्रोधकी सीमा न रही। वह क्रोधसे ज्यालामय होकर सोचने लगा कि "मेरे इन निर्जन शान्त राज्य में जहां हिंसक जानवरों तकको प्रवेश करने की हिम्मत नहीं होती वहां इस निर्भीक अचल मनुष्यको खड़े रहनेका साहस कैसे हुआ ?" बस, इतना सोचकर उसने एसी भयंकर विषभरी फुफकार छोड़ी कि उस जंगल में सर्वत्र विषकी चिनगारियां फैल गई और चारों ओर नोल वर्णको आभा छा गई। उससे दूर दूर तक बचेकुचे जीवजन्तु भस्म हो गये । परन्तु भगवान पर उसका कुछ भी असर न पड़ा । तबतो वह क्रोधके मारे और भी आग बबूला हो गया और पूर्ण बेगसे लपककर उसने भगवानके पैरके एक अंगूठेको जोरसे डस लिया । तब भी भगवान पहले के समान ही अटल और ध्रुवकी तरह अचल ध्यान मग्न खड़े के खड़े रहे । उन्हें सबकी फुफकार और काटने का कुछ ध्यान ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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