Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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रोने लगा और अपने भाग्य को कोसने लगा। जब गोशाला बहन ही व्याकुल होने लगा तो समताधारी भगवान बोले 'गशाला ! तृ विपत्तियों को विपत्ति न समझ; ये तो प्रकृति की विभूनियां हैं । जिस तरह बिना बादलों की टक्करके बिजलो का प्रकाश नहीं होता, उसी तरह विपत्तियों के बिना गुणोंका पूरा-पृग विकास नहीं हो पाता ।' जब भगवान इस प्रकार जीवन में चमक और सुन्दरता लाने वाली बात गोशाला से कह रहे थे उसी समय भगवान पार्श्वनाथके शासनकी दो साध्वियां वहांसे निकली। उन्होंने कुएमें शब्द सुने और वहां जाकर देखा तो उन्हें भान हुआ कि इतने घोर संकटमें पड़ा हुआ साधु कितनी शान्तिके साथ दुसर दु:खित साधुको बोध दे रहा है इस प्रशान्त, प्रसन्नचित, धीर, वीर, गंभीर तथा अपूर्व तेजस्वी महापुरुषकी बातचीतस एसा प्रतीत होता है कि हो न हो शस्त्र नुसार कहीं ये अन्तिम तीर्थकर न हो । क्योंकि मरणासन्न विपत्तिकालमें भी उनके चेहर पर अनुपम गंभीरता, प्रसन्नता, निर्भिकता और पूर्वोपार्जित कर्मों के कठोरस कठोर फलोंको चुकान की उत्सुकता, शरीरकी कमनाय कानि और असाधारण तेज ये सब गुण एक साथ यह बता रहें हैं कि ये महापुरुप अवश्य ही अन्तिम तर्थिकर होना चाहिये ।
इस प्रकार विचार कर वे साधियां शीघ्रही उस स्थान के अधिकारी के पास गई और उन्हें सारा वृतान्न कह सुनाया। अधि. कारीने साध्वियोंकी बातें सुन सिपाहियों को हुक्म दिया कि शीवही उन महापुरुषोंको कुण्में से निकालो। आज्ञा मिलनेही सिपाही लोग कुरके समीप पहुंचे और भगवान और गोशालाको उसमें से निकाला । अधिकारीभी वहां आपहुंचा और भगवानको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com