Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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नहीं कर सकता । अतः मैं आपसे अब अलग होकर अपने भाग्य का निपटारा स्वयं करना चाहता हूं।' इस प्रकार विदा मांगकर गोशाला प्रभुसे अलग होकर दूसरे मार्गसे चल दिया और कई तरहके नवीन कर्म उपार्जन किये जिसका वर्णन अन्यत्र न्याम पाया जाता है।
अनार्य देश
भगवान महावीरने अपने चार चतुर्मास तो उक्त कथित स्थानों में अनेकानेक उपसर्गाको सहन करते हुए बिताये। उन्होंने अपना पांचवा चतुर्मास भद्दिलपुरमें, छटवां भद्रिकापुरीमें, सातवां
आलंबिकापुरीमें और आठवां चतुर्मास राजगृहमें किया। इन चतुर्मासोंमें भगवान पर शालामी नामक एक व्यंतरी के उपसर्गों को छोड़कर कोई उपसा नहीं हुए।
इधर नानाप्रकारके कष्ट और अपमानोंको सहता हुश्रा गोशाला प्रभुकी खोज करने लगा। उसे अब मालूम हुआ कि बिना प्रभुसत्संग के गति नहीं। एक समय जब प्रभु भद्रिकापुरी में पधारे तो गोशालाभी अकस्मात प्रभुको ढूंढ़ता हुआ वहां आ पहुंचा। प्रभुके पास आकर उसने अपने अपराधोंकी क्षमा मांगी
और प्रार्थनाकी 'प्रभु ! मुझे फिरसे अपनाइये, मैंने जैसा किया वैसा पाया; मेरे अपराध क्षमा कीजिये।' परम दयालु भगवानने उसे फिर अपना लिया।
विचरते विचरते प्रभु महावीरने अपना नवमा चतुर्मास अनार्य देशमें करने का निश्चय किया और उस ओर रवाना हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com