Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
View full book text
________________
६७
उका कथित सर्वगुण सम्पन्न देखकर बहुत लजिा हो बार बार पछताने लगी । अपने विना विचारे अपराध के लिये वह वारंवार भगवानसे क्षमा याचना करने लगा। करुण दृष्टि भगवानने भी अपना हाथ ऊंचार अधिकारी और सिपाहियों को क्षमा प्रदान की श्रे.र घरगकी और बिहार कर दिया।
वहां से चलकर प्रभु हरिद नानक गांवमें आये और गांव के बाहर एक वृक्ष के नीचे ध्यान लगा दिया । वहां रात्रिको ठहरे हुए व्यापारियों ने शीतकाल के ठंड के कारण आग जला रक्खी थी । वह आग जलते जलने प्रभु के पांव के पास पास चारों और फैल गई । गोशाला तो वहां से दूर भाग गया परन्तु भगवान ज्यों के त्यों अपने ध्यानमें निश्चल खड़े रहे । प्रातः काल होते ही जब भगवान की ध्यान मुद्रा खुली तो गोशाला ने पुनः भगवानकी अवहेलनाकी
और कहा कि आप अपने पांवकी ओर निहारय । प्रभुने उत्तर दिया कि 'गोशाला! मुझइससे कुछभी संताप नहीं, कर्मोंका खाता तो व्याज समेत चुकाना ही पड़ेगा। ये टल नहीं सकता । इस लिय क्षमता के साथ इसे खुशीसे भ.गनाही साधुके लिये अधिक हितकर है।' प्रभुकी इस वाणीको सुन गोश ला भी उसी दिन से प्रभुके समान क्षमताधारी बनने की भावना करने लगा। पश्चात प्रभुने वहां से भी बिहार कर दिया।
__ अनेकानेक कष्टों को सहन करते हुए गोशाला के साथ जब प्रभु विहार कर रहे थे नो एक दिन राह चलते चलने दो मार्ग मिले । यहां गोशालाने भगवानसे कहा 'प्रभु ! कष्ट सहते सहते मेरा जी ऊब गया । मैं चाहता हूं कि आपका साथ न छोडूं, पर भगवन् ! मैं इन कठिन वेदनाओं को अधिक काल तक सहन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com