Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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न रही । उसी समय उसने एक भयंकर गर्जनाकी, जिससे आस पासके पशु पक्षी घबरा गये परन्तु भगवान जराभो चल-विचल न हुए । पश्चात उसने एक बहुत बड़ा डरावना रूप बनाकर भगवानको भांति-भांतिसे डराना शुरू किया, किन्तु वीर प्रभु पर उसका कुछभा असर न हुआ। तीसरी बार उसन एक विकराल सर्पका रूप धारण किया और जोर-जोरसे फुफकारता हुआ भगवानको जगह-जगह डसना शुरू कर दिया, पर अटूट
आत्मबल और घोर तपोबल के प्रभावसे प्रभुका कुछभी न बिगड़ा बल्कि उनकी मुख मुद्रा पर निर्भयता और आनन्द प्रभा दुगनो झलक उठी।
सिद्धार्थ व्यन्तर देव यह सब हाल देखही रहा था; वह तुरन्त उस यक्षके पास आया और उसे कहने लगा कि 'अरे ! अरे ! तूने यह क्या किया उपद्रव मचा रखा है; तू नहीं जानता कि इन्द्र महाराज भी इन्हें अपना पूज्य मानते हैं और इन्हें नमन करते हैं। तूने इनके मुखचन्द्रसे भो न पहचाना किये तो जगत्पूज्य प्रात्मा हैं। दूसरे तो तेरे डरले ही दूर भागते हैं पर ये तो खुद आकर तेरे यक्षालय में ठहरे हैं, इसीसे तुझे मालूम करलेना था कि ये अवश्य कोई अपूर्व बलधारी आत्मा है । चल चल यहां से दूर हो इत्यादि "
यक्षतो अपनी अनीति और अत्याचारोंका प्रभु पर कुछभी असर न देख मनहमिन कायल हो ही रहा था, तिसार सिद्धार्थ व्यन्तर देवके कथन से तो उसकी क्रूरता बिलकुलही विलीन हो गई । वह मन ही मन पछताने लगा और प्रभुसे अपने दुष्कृत्यों की बार बार क्षमायाचना करने पर तत्पर हो गया।
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