Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ ५४ (५) गृहस्थसे विनय न करना अर्थात् दीनवृत्ति न दिखाना। ऐसी कड़ी प्रतिज्ञाएं कर वर्षा ऋतुके समाप्त होतेही भगवान ने उस आश्रमसे एकदम बिहार कर दिया और आस्थिक ग्राममें पधार गये। __ इस श्रास्थिक गांवमें शूलपाणि नामक एक यक्ष रहता था, जो गांवके जीवधारियोंको मारकर खाया करता था और उनकी हड्डियों के ढेर लगाया करता था, जिससे उस गांवका नाम आस्थिक गांव अर्थात हड्डियोंका गांव पड़ गया था। गांवके कुछ मनुष्योंने उस यक्षको खुश करने का प्रयत्न कर रखा था जिसके द्वारा उस नरभक्षी यक्षसे उनकी रक्षाहो सके । गांवमें प्रभुने यह बात सुनकर उस यक्षके यक्षालय में ही ठहरने की अपनी अभिलाषा प्रगट की। इसपर लोगोंने प्रभुसे प्रार्थनाकी कि 'स्वामिन् उस यक्षके समीप निवास करना उचित नहीं, क्योंकि उसके पास जाकर प्राण बचाना कठिन है । इसलिये हम लोगोंकी प्रार्थना है कि आप वहां जानेका और ठहरनेका विचार त्याग दीजिये। परन्तु भगवान उस यक्षके भयसे कब भयभीत होने वाले थे। प्रभु वहांसे चलकर शलपाणि के यक्षालयमें जा पहुंचे और उसके एक कोनेमें रहने का विचार कर लिया और ध्यान करने लगे। रात्रिका समय होने लगा, कालिमा चारों ओर छागई; परन्तु मौनवृती प्रभु अपने कायोत्सर्ग ध्यानमें ज्योंके त्योंही अचल खड़े रहे । रात्रिके नियत समय पर वह यक्ष वहां पाया। तपस्वी भेषमें प्रभुको अपने यक्षालयमें देख उसके क्रोधकी सामा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144