Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 50
________________ ५२ धैर्य और गंभीरता से सामना करते हैं और शान्तिके साथ उन्हें सहते हैं । वे अपनीही आत्माके विकाश पर कैवल्य ज्ञान प्राप्त करते हैं चाहे उनका यह सौदा कितनाही मंहगा क्यों न हो। शकेन्द्र ! इस कथनमें न तो अभिमानका आभास है और न आपकी सहायताकी अवहेलना ही है।" ____यह सुनकर इन्द्रने मनहीमन भगवानक रचालम्बनकी प्रसंशा की और इन्हें नमन कर अपने स्थानकी ओर प्रस्थान किया। परन्तु भगवानके इतना कहने परभी स्वस्थानको जाने के पूर्व, इन्द्रने सिद्धार्थ नामक देवको भगवान पर उपसर्गों को रोकनके लिये वहां रक्षकरूपमें रखहीं दिया। उधर भगवान भी अपने कर्मों की निर्जरा करने लिये पुनः ध्यान मग्न हो गये। नोट-महान आत्माओं के पुन्य के प्रभाव से इन्द्रादिक देव भी प्रभावित होकर उनकी सेवाके लिये तत्पर हो जाते हैं ऐसा जैन शास्त्रों का कथन है इसमें अतिशयोक्ति नहीं है। प्रथम चतुर्मास भगवान महावीरकी छद्मस्थ अवस्थाकी अवधि बारह वर्ष की थी । भगवान पर इन बारह वर्षों में भयंकरसे मयंकर उपसर्ग हुए पर हम यहां उनमें से कुछ मुख्य मुख्य उपसर्गोंका संक्षिप्त वर्णन करेंगे। प्रभु महावीरका प्रथम चतुर्तुमास मोराकसनिवेशमें हुआ। वर्षा ऋतुके प्रारंभ होते ही प्रभुने मोराक सन्निवेशमें दुइजन्त नामक एक तापसके आश्रममें अपना निवास प्रारंभ किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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