Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 57
________________ ५६ देखा कि अहो !!! मोक्ष की साधनाके हेतु बना हुआ पूर्वभव का साधु, मैं क्रोधके कारण कर्म बांधकर ‘चण्ड कौशिक' सर्प हुआ हूं। फिरभी इस समय महाक्रोध कर अनेक जीवों के प्राण हर रहा हूं और त्रास दे रहा हूं। इतनाही नहीं जगत्पूज्य करुणासागर भगवानको भी मैंने निर्दयतासे डसा है। न जाने अब मेरी क्या गति होगी । बस अब तो उसकी शक्तिने पूर्णरूपसे पलटा खाई । सर्प, पहले जितना उग्र क्रोधी था, आजसे उतनाही शान्तताकी मूर्ति बनगया, मानो एक मोक्षाभिलाषी आत्माने वैराग्य मुद्राको धारण कियाहो । सर्पने अनशन करना प्रारंभ कर दिया और अपने आयुष्य कर्मको पूर्णकर आठवें स्वर्गको प्राप्त किया । पाठक गण ! जिस सर्पको भगवानकी शान्ति मुद्राने आठवें स्वर्गका स्वामी बनाया ! यहीतो प्रभुकी प्रभुता है जहां उत्तम क्षमा, शान्ति, सत्य और अहिंसाका प्रचण्ड प्रभाव मूर्तिमान हो कर दृष्टिगोचर होता है। नोट-जड़वादी लोग विषैले सर्पके काटने और फिरभी जीवित रहजाने में सहसा विश्वास नहीं कर सकते । परन्तु आज भी देखा जाता है कि मंत्रादि क्रिया के प्रभावसे बड़े बड़े भंयकर सर्प बसमें किये जाते हैं। मंत्रादि शब्द जप होने परभी इतना प्रभाव रखते हैं तब आत्म शक्ति के प्रभावमें तो अपूर्व बल भरा हुआ है तिसपर महानयोगीके शरीर पर विषका असर न हो यह स्वभाविक अर्थात् अतिशयोक्ति-रहित है। इसपाठमें क्षमा और क्रूरताके युद्धका मनोहर वर्णन और क्षमाकी सुन्दर विजयका दिग्दर्शन कितना शिक्षाप्रद है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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