Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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उस आश्रम का कुलपति प्रभुके पिताका मित्रथा । इस आश्रममें और भी अनेक तपस्वी रहते थे । परन्तु आश्रमके जिस स्थानमें प्रभु ठहरे थे वहां वे सदैव ध्यान मग्न रहकर ही रात दिन बिताते थे यहां तक कि उस स्थानके आसपास इतनी घास ऊग गई थी कि वहां आश्रम की गौएं आकर चरती और उसे तहस नहस करती तोभी ध्यानस्थ प्रभु उसकी कुछभी परवाह न करते । इस तरह वह स्थान दिन बदिन नष्ट होने लगा उसे देख दूसरे इर्षालु तपस्वी कुलपतिसे प्रभुकी शिकायत करने लगे कि न मालूम यह कैसा तपस्वी है कि अपने स्थानके आसपास की परवाह तक भी नहीं करता और न उसे साफ स्वच्छ रखता है । यह बहुत कायर मालूम होता है ऐसा तापस आश्रममें नहीं होना चाहिये; इत्यादि ।
तपस्वियोंके वचन सुनकर कुलपतिभी उनकी बातोंमें आगये और प्रभु जहां पर ध्यान करते थे वहां आकर उन्हें कुछ बातें सुनाई। परन्तु क्षमाशील प्रभुने कुलपतिकी सब बातें प्रसन्न वदन सुनली और उनके प्रति जराभी रोष न लाया । परन्तु लोक मर्यादा
और साधुमार्गमें प्रवृत होने वाले लोगों की रक्षाके लिये उनके भनमें एक विचार उत्पन्न हुआ । इस बिचारके उत्पन्न होतेही प्रभुने उसी समय निम्न लिखित पांच प्रतिज्ञाएं कर वहांसे अन्यत्र चल देनेका निचश्य कर लिया वे पांच प्रतिज्ञाएं इस प्रकार थी।
(१) अप्रीतिकारक स्थान में कभी न ठहरना. (२) प्रायः मौनवृत में ही रहना.
(३) कहीं भी रहें कायोत्सर्गही धारण कर रहना. __ (४) अंजली ही को पात्र मान उसीमें आहार करना.
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