Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 49
________________ भगा देना चाहिये नहीं तो ये कुछ और ऐसे उपद्रव करेगा। ऐसा उपद्रव करेगा । ऐसा विचारकर रवालों के पास जो रस्सी थी उससे उन्होंने भगवानको निर्दयता पूर्ण सड़ा-सड़ मारना प्रारंभ कर दिया । परन्तु भगवान अपने ध्यानसे किञ्चित भी विचलित न हुए । ग्वालोंकी भी भीभत्स क्रूरताको भी उन्होंने अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के फलोंकी अदाईका सस्ता और सरल सौदा समझा । भगवान के साथ जय यह भीषण कांड हो रहा था तब इन्द्रने अपने अवधिज्ञानसे मालुम किया कि थोड़ाही समय हुआ है । प्रभुने दीक्षा धारणकी है और आज इतना भयंकर उपसर्ग हो रहा है। कुछभी हो इस समय भगवानकी रक्षा करना परम आवश्यक है । ऐसा विचारकर शोघ्रातिशीघ्र इन्द्र उस स्थान पर आया और ग्वालोंको उनके दुर्व्यवहारसे रोका और उन्हें वहांसे भगा दिया । तदनन्तर प्रभुका ध्यान समाप्त हुआ तब इन्द्रने उन्हें विनयपूर्वक नमन कर नन भावसे प्रार्थनाकी कि " प्रभु ! अभीतो दीक्षाका थोडासा समय बीता है, अभी बारा वर्ष और बीतना है। इतने समयमें न मालुम कैसे कैसे भयंकर उपसर्ग आवेंगे। अभीसे शरीर की ऐसी दशा हो रही है इसी शरीर द्वारा तो जगतका कल्याण होने वाला है । अतः आज्ञा दीजिये तो हम सेवक के रूपमें आपके शरीर रक्षक बनकर आपके साथ रह सकें।" इसपर प्रभुने बड़ेही शान्त और प्रसन्न बदन हो इन्द्रको उत्तर दिया " देवराज ! ऐसा कभी हुआ न होगा, कर्मोंका फल तो अवश्यही भोगना पड़ेगा। जो तीर्थकर होते हैं वे दूसरोंकी सहायता कभी नहीं चाहते । वे अपनी ही प्रतिभासे, अपनी ही यात्माकी अनन्त शक्ति द्वारा समस्त बाधाओं एवं परिसहोंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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