Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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आत्मशक्तिने राक्षसी शक्ति पर विजय पाई । वह यक्ष अपने क्रूर काँकी निन्दा करने लगा। वह प्रभुके चरणों में आकर गिर पड़ा और नानाविधि से अपने पूर्व कृत्योंपर पश्चाताप करने लगा। प्रभुके तपोबल एवं आत्मशक्तिने यक्ष की काया पलट करदी। वह उसी समयसे सम्यक्त्वो बन प्रभुकी उपासना में लग गया।
चण्डकौशिक सर्प की सद्गति भगवान महावीर वाचाल सन्निवेश से बिहार करके ज्योंही श्वेताम्बरी नगरीकी ओर रवाना हुए त्योंही मार्गकी एक भयानक अटवीमें एक ग्वालसे उनकी भेंट हुई । भगवानकी अनुपम शान्ति
और गंभीर शारीरिक स्थितिको देख उस ग्वालने पूछा 'प्रभु प्राप किस ओर पधार रहे हैं ?'
प्रभुने उत्तर दिया- श्वेताम्बरीकी ओर'। इसपर उस ग्वालने विनय पूर्वक भगवानसे विन्तीकी कि 'स्वामिन् ' श्रेताम्बरीका यह मार्ग तो बिलकुल सीधा है परन्तु इस मार्गमें बहुत बड़ा भय है । इसरास्ते में एक बहुतही भयानक दृष्टिविषवाला 'चंडकाशिक' नामक सर्प रहता है जिसकी दृष्टिमात्रसे मनुष्यतो क्या उससे भी बड़े बड़े विशाल प्राणीभी नहीं ठहर सकते। यदि कोई अकस्मात् वहां जा निकले तो वह शीघ्रही भस्मीभूत हो जाता है । अतः श्राप कृपाकर दूरके अन्य मार्ग से श्वेताम्बरीको पधारें तो अच्छा हो।
भगवान महावीरतो एक नितान्त निर्भय आत्मा थे। वे इस ग्वाल की भयोत्पादक बातोंसे बिलकुलही विचलित न हुए और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com