Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 44
________________ भीषण प्रतिज्ञा । क्षमा वीरस्य भूषणम् ।। भगवान महावीरने जिस दिन दीक्षा ग्रहणकी उसी दिन इस नाशवान शरीर द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मों का बदला क्षमताके साथ शान्ति-पूर्वक चुकानेका अटल निश्चय कर लिया । अतुलनीय वल और प्रखर बुद्धि होते हुएभी उन्होंने ऐसी कठिन प्रतिज्ञा करली कि “ यदि कोईभी देव दानव मनुष्य एवं तिर्यच कितना ही कष्ट क्यों न दे, वह सब मुझे सम्यक प्रकारसे शान्तिपूर्वक सहन करना होगा ।" क्योंकि ऐसा करने से ही दुष्ट कर्मों का नाश होकर सच्चे सुख की प्राप्ति होगी। इसप्रकार प्रतिज्ञा करने के बाद भयंकर से भयंकर कष्ट एवं उपसर्ग आने परभी मन, वचन और काया से क्षमापूर्वक शान्तिके साथ उसे सहन करनाही भगवानका एकमात्र ध्येय हो गया । पाठकगण देखेगें कि अवतो भगवान के पौदगलिक ( जड़ ) राज्यमें दण्डों का विधान और पापियों से घृणाका अन्त हो गया, और उनकी जगह घोरसे घोर अपराध के लिये इस आत्मशासनमें केवल क्षमा और उसके द्वारा पश्चाताप करके पापोंके प्रक्षालन का विधान बन गया । प्राणीमात्र को अपनाअपना जीवन प्रिय है, चाहे वह छोटा हो या बड़ा । इस संसारमें प्रत्येक प्राणो जीना चाहता है । किसी भी जीवको किसी तरहका कष्ट पहुंचाना अधर्म है। सब जीव अपने-अपने जीवन में जीवित रहनेका समान अधिकार रखते हैं। सवही सुखकी वाच्छा करते हैं। अतः उन्हें मन, वचन अथवा कायासे दु:खी करना महान पापका कारण है। ऐसी उच्च कोटि की साम्य भवना प्रमुके हृदय में जाग्रत होगई। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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