Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha

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Page 46
________________ ४८ दीक्षाके बाद भगवान महावीरका बारह वर्पका जविन उग्र तपस्याका जीवन था । इन बारह वर्षों में भगवान महावीरको जिनजिन संकटों का सामना करना पड़ा उन्हें पढ़कर आत्मा कंपायमान हो जाती है, हृदय विदीर्णसा बन जाता है; धैर्य छूट जाता है और महाविकराल भयंकर क्रूरता का नग्न दृश्य सामने आ जाता है । परन्तु भगवान के उत्कट बल, साहस और अगाध सहनशक्ति के सामने ये सब संकट ऐसे फाके पड़ जाते हैं कि जैसे सूर्यके पूर्ण प्रकाश के सामने चन्द्रका तेज उदास मालूम होने लगता है। भगवान महावीर को अब अपने पूर्वोपार्जित कर्मोका कर्ज चुकाना है । कर्ज चुकाने लिये जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने साहूकारों को एकत्रित करता है और वे मब अपना अपना कर्ज वसूल करने को आकर खड़े हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार भगवानभी अप पूर्वोपार्जित कर्मोका कर्ज चुकाने को अपने पैरों पर खड़े हुए हैं। पाठकगण देखेंगे कि किस प्रकार भगवान इन भयंकर उपसर्गोका बदला अपूर्व क्षमा, शांति, अहिंसा, सहिष्णुता, त्याग और संयम के साथ चुकाते हैं और उनपर विजय प्राप्त करते हैं। ऐसा अद्वितीय उदाहरण एवं आदर्श संसार में शायदही अन्यत्र मिल सकेगा। भगवान की दीक्षा महोत्सबके समय चंदनादि उत्तमोत्तम सुगंधित पदार्थों का जो लेप हुआ था उसकी सुगन्धसे भौरे मस्त होकर दशों दिशाओंसे आकर भगवानके शरीर पर बैठने लगे और उसका रसपान करने लगे। यहां तक कि उस सुगन्धिके समाप्त होते तक उन भ्रमरोंने भगवान के शरीरका रक्त और मांस चूसना और नोचना आरंभ कर दिया। उस समयकी वेदना महान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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