Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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आप अपने २७ दिसम्बर सन् १९१३ के काशीमें दिये व्यख्यान में प्रस्तुत करते हैं कि:
(i) 'जैन धर्म की प्राचीनता का अनुमान लगाना बहुत ही कठिन है । परन्तु इस धर्म के साहित्यने न केवल धामिक विभागमें किन्तु आत्मोन्नति के अन्य विभागों में भी आश्चर्यजनक उन्नति प्राप्त की है। न्याय और आध्यात्म विद्याके विभागमें तो इस साहित्यने ऊंचेसे ऊंचे विकास और क्रमको धारण किया है।
(ii) एक गृहस्थ का जीवन जो जैनत्वको लिये हुए है इतना अधिक निर्दोष है कि भारतवर्ष को उसका अभिमान होना चाहिये।
(iii) ऐतिहासिक संसारमें यदि भारत देश संसार भरमें अपनी आध्यात्मिक और दार्शनिक उन्नतिके लिये अद्वितीय है तो इससे किसीको भी इन्कार न होगाकि इसमें जैनियोंको ब्राह्मणों और बौडों की अपेक्षा अधिक गौरव प्राप्त है।
४. पं० स्वामीराम मिश्रजी शास्त्री, भूतपूर्व प्रोफेसर संस्कृत कालेज-बनारस
काशीके पौष शुक्ल १ संवत् १९६२ के व्याख्यान में आप दर्शाते हैं किः
(i) वैदिकमत और जैनमत सृष्टि की आदि से बराबर अविच्छिन्न चले आये हैं । इन दोनों मत्तोंके सिद्धान्त एक दूसरे से विशेष घनिष्ट संबंध रखते हैं । अर्थात् सत्कार्यवाद, सत्कारणवाद, परलोकास्तित्व, आत्माकानिर्विकारत्व मोक्ष का होना और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com