Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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वैज्ञानिक लोगों को पता तक नहीं है मैंने अपने मुल्कमें कुछ लोगोंका ध्यान इस ओर आकर्षित किया है। आज चालीस वर्षोंसे मैं इस फिलासफीका अध्ययन कर रहा हूं।
सरस्वती १२ मार्च सन् १९१३ से उधृत कनेडियन मिशिन कालेज--इन्दौर के इतिहासवेत्ता प्रोफेसर जोहरी मिशिनरी:
ईस्वी सन् १९.१७-१८ में लेखक जब उक्त कालेज की बी० ए० क्लासमें पढ़ता था तब उसे उक्त प्रोफेसर साहब से बातचीत करनेका कई बार मौका मिला उक्त प्रोफेसर साहब का कथन था कि:
" स्वार्थियोंके 'न गच्छञ्जिन मन्दिरम् ' इस वाक्य ने संसार को सुख और शान्ति पहुंचाने वाले जैनियों के अमूल्य रत्न भंडार ग्रन्थोंको अज्ञानकी चार दीवारोंके अन्दर बन्द कर दिया । यदि जैन धर्मके सिद्धन्तों का प्रचार दुनियां भरमें होता तो संसार के किसीभी भागमें पाशविक अत्याचार और रक्तकी नदियां न बहती जैसाकि अजकल हम यूरोपियन खंडमें सुन रहे हैं। यह धर्म उत्तम आदर्शों का लेकरही अनादिकालसे संसारकी सेवा करता चला आरहा है । यह धर्म कबसे प्रचलित हुआ यह तो इतिहास भी नहीं बता सकता, परन्तु यह अवश्य कहना पड़ता है कि इस धर्मके अनेक उच्च सिद्धान्तोंमे से अहिंसाका सुन्दर सिद्धान्त मनन करने योग्य है।"
____ श्री महावीर जयन्त्युत्सव समारोह नागपुर - ता०
३०-३-१६४२ अध्यक्ष-नागपुर हायकोर्ट के माननीय जस्टिस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com