Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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कार्यालय, विशाल जैन मन्दिर और अनेक श्राश्रमादि लोकोपयोगी संस्थाएँ इतिहास प्रसिद्ध हैं । अनेक स्थानों में श्राजतक भी उनके पुरातन तीर्थस्थान मौजूद हैं जिनकी शिल्पकारी देखकर उनकी उन्नति और प्राचीन सभ्यताका अनुमान प्रासानीसे हो सकता है।
__भगवान पार्श्वनाथ स्वामीके स्वल्पकाल पश्चातही भारत वर्षमें धार्मिक श्रृंखला टूट चुकी थी और अधर्मका राज्य फैलने लगा था । ब्राह्मण लोग अपने ब्राह्मणत्व को भूलकर स्वार्थ के वशीभूतहो अपनी सत्ताका दुरुपयोग करने लगे थे। क्षत्रोलोग भो ब्राह्मणों के हाथ की कठपुतली बनकर अपने कर्तव्योंसे विमुख होगये थे । समाजमें बहुत ही विक्राल विश्रृंखला उत्पन्न होने लगी थी। समाज और प्रबंध अत्याचारियोंके हाथमें जा पड़ा था। सत्ताउन्माद और अहंकारकी शिकार बन चुकी थी। राजमुकुट अधर्म के शिरपर मंडित था। समाजभर में त्राहि त्राहि मच गई थी । भारत वर्षके धार्मिक और सामाजिक इतिहास में यह काल बड़ाही भीषण था । समाजके अन्तर्गत अत्याचारों की भट्टी बारोंसे धधक रहीथी । धर्म के नामपर स्वार्थका राज्य सवार था। धर्भ
और समाजकी ऐसी दुर्दशा हो चुकी थी कि वे चोरण क्षीण होकर कई टुकड़ोंमें विभाजित हो चुके थे। जिधर देखो उधरही अधर्म, पाप और हिंसा ही हिंसा दृष्टिगोचर हो रही थी। ऐसी भीभत्स भयंकरता के कारण समाज की उन्नतिके स्थानपर महान अवन्नति दिखाई दे रही थी। पशुवध और उग्रहिंसामय यज्ञकर्म तो भारतव्याप्त होगया था। कहीं अश्वमेघयज्ञ ( जहां सहस्त्रों
घोड़ें अग्निमें होम दिये जाते थे), कहीं गोमेघयज्ञ (जहां गौएं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com