Book Title: Antim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Author(s): Gulabchand Vaidmutha
Publisher: Gulabchand Vaidmutha
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उसका नित्यत्व, जन्मान्तर के पुण्य पापसे जन्मान्तर में फल भोग, वृतोपवासादि व्यवस्था, प्रायश्चित व्यवस्था, महाजनपूजन, शब्द प्रमाण्य इत्यादि समान हैं।
(ii) आप फरमाते हैं—' सज्जनों इस धर्ममें ज्ञान, वैराग्य, शान्ति, शान्ति, अदम्भ, अनीर्षा, अक्रोध, अमत्सर्य, अलोलुपता, शम, दम, अहिंसा और समदृष्टता इत्यादि गुणामें एक एक ऐसा है कि वह जहां पाया जाय वहां पर बुद्धिमान लोग उसकी पूजा करने लगते हैं। तवतो जैनोंमें पूर्वोक्त सब गुण निरतिशयसीम होकर विराजमान हैं। यह कायरों का धर्म नहीं है । एक दिन वह था कि जैनाचार्यों की हुंकार से दशों दिशाएं गूंज उठती थी। परन्तु काल चक्र ने जैनमतके महत्वको ढांक दिया है इसीलिये उसके महत्व को जानने वालेभी अब नहीं रहे ।
(iii) सज्जनों ! आप जानते हैं कि मैं वैष्णव साम्प्रदायका कट्टर आचार्य हूँ तोभी भरी सभा में सत्यके कारण मुझे यह कहना आवश्यक हुआ है कि जैनोंका ग्रन्थ-समुदाय सारस्वत महासागर है । उनकी अन्य संख्या इतनी अधिक है कि उसकी यदि सूची बनाई तो एक विशाल ग्रन्थ बन जायगा । इनके ग्रन्थ बहुत गंभीर, युक्ति-पूर्ण, भाव-पूरित, विशद और अगाध हैं। यह बात वे ही जान सकते हैं जिन्होंने मेरे समान किञ्चितमात्र इनका मनन किया हो। . . (iv) सज्जनों ! जनमत तबसे प्रचलित हुआ है जबसे संसार सृष्टिका आरंभ हुआ । मुझतो इस प्रकार कहने में भी संदेह नहीं होता कि जैन दर्शन वेदान्तादि दर्शनों से भी पूर्व का है।' इत्यादि
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