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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
था, सब और सब स्थानों में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाला था । सब को विचार देने वाला था तथा राज्य की धुरा को धारण करनेवाला था । वह स्वयं ही राज्य राष्ट्र कोश, कोठार बल और वाहन पुर और अन्तःपुर की देखभाल करता रहता था ।
[११] उस श्रेणिक राजा की धारिणी नाम देवी (रानी) थी । उसके हाथ और पैर बहुत सुकुमार थे । उसके शरीरी में पाँचों इन्द्रियों अहीन, शुभ लक्षणों से सम्पन्न और प्रमाणयुक्त थी । कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अतीव मनोहर, धैर्य का स्थान, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत आभूषणों तथा वस्त्रों के पिटारे के समान, सावधानी से सार-संभाल की जाती हुई वह महारानी धारिणी श्रेणिक राजा से सात विपुल भोगों का सुख भोगती हुई रहती था ।
[१२] वह धारिणी देवी किसी समय अपने उत्तम भवन में शय्या पर सो रही थी । वह भवन कैसा था ? उसके बाह्य आलन्दक या द्वार पर तथा मनोज्ञ, चिकने, सुंदर आकार वाले और ऊँचे खंभों पर अतीव उत्तम पुतलियाँ बनी हुई थीं । उज्जवल मणियों, कनक और कर्केतन आदिरनों के शिखर, कपोच-पारी, गवाक्ष, अर्ध चंद्राकार सोपान, निर्यूहक करकाली तथा चन्द्रमालिका आदि धर के विभागों की सुन्दर रचना से युक्त था । स्वच्छ गेरु से उसमें उत्तम रंग किया हुआ था । बाहर से उसमें सफेदी की गई थी, कोमल पाणाण से घिसाई की गई थी, अतएव वह चिकना था । उसके भीतरी भाग में उत्तम और शुचि चित्रों का आलेखन किया गया था । उसका फर्श तरह-तरह की पंचरंगी मणियों और रत्नों से जड़ा हुआ था । उसका ऊपरी भाग पद्म के से आकार की लताओं से, पुष्पप्रधान बेलों से तथा उत्तम पुष्पजाति- मालती आदि से चित्रित था । उसके द्वार-भागों में चन्दन - चर्चित, मांगलिक, घट सुन्दर ढंग से स्थापित किए हुए थे । वे सरस कमलों से सुशोभित थे, प्रतरक - स्वर्णमय आभूषणों से एवं मणियों तथा मोचियों की लंबी लटकने वाली मालाओं से उसके द्वार सुशोभित हो रहे थे । उसमें सुगंधित और श्रेष्ठ पुष्पों से कोमल और रुएँदार शय्या का उपचार किया गया था । वह मन एवं हृदय को आनन्दित करनेवाला था । कपूर, लौंग, मलयज चन्दन, कृष्ण अगर, उत्तम कुन्दुरुक्क, तुरुष्क और अनेक सुगंधित द्रव्यों से बने हुए धूप के जलने से उत्पन्न हुए मघमघाती गंध से रमणीय था । उसें उत्तम चूणों की गंध भी विद्यमान थी । सुगंध की अधिकता के कारण वह गंध-द्रव्य की वट्टी ही जैसा प्रतीत होता था । मणियों की किरणों के प्रकाश से वहाँ का अंधकार गायब हो गया था । अधिक क्या कहा जाय ? वह अपनी चमक-दमक से तथा गुणों से उत्तम देवविमान को भी पराजित करता था ।
इस प्रकार के उत्तम भवन में एक शय्या बिछी थी । उस पर शरीर - प्रमाण उपधान बिछा था । एकमें दोनो ओर - सिरहाने और पाँयते की जगह तकिए लगे थे । वह दोनों तरफ ऊँची और मध्य में भुकी हुई थी गंभीर थी । जैसे गंगा के किनारे की बालू में पाँव रखने से पाँव धँस जाता है, उसी प्रकार उसमें धँस जाता था । कसीदा काढ़े हुए क्षौमदुकूल का चद्दर विछा हुआ था । वह आस्तरक, मलक, नवत, कुशक्त, लिम्ब और सिंहकेसर नामक आस्तरणों से आच्छादित था । जब उसका सेवन नहीं किया जाता था तब उस पर सुन्दर बना हुआ राजस्त्राण पड़ा रहता था उस पर मसहरी लगी हुई थी, वह अति रमणीय थी । उसका स्पर्श आजिनक रुई, बूर नामक वनस्पति और मक्खन के समान नरम था । ऐसी सुन्दर शय्या पर मध्यरात्रि के समय धारिणी रानी, जब न गहरी नींद में थी और न जाग ही रही थी, बल्कि
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