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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१४/१५१
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में आई । आकर यथोचित उपाश्रय ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी । तत्पश्चात् उन सुव्रता आर्या के एक संघाड़े ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया और दूसरे प्रहर में ध्यान किया । तीसरे प्रहर में भिक्षा के लिए यावत् अटन करती हुई वे साध्वियाँ तेतलिपुत्र के घर में प्रविष्ट हुई पोट्टिला उन आर्याओं को आती देखकर हृष्ट-तुष्ट हुई, अपने आसन से उठ खड़ी हुई, वंदना की, नमस्कार किया और विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद्य आहार वहराया । आहार वहरा कर उसने कहा- 'हे आर्याओ ! मैं पहले तेतलिपुत्र की इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम- मनगमती थी, किन्तु अब अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, अमणाम हो गई हूँ । तेतलिपुत्र मेरा नाम - गोत्र भी सुनना नहीं चाहते, दर्शन और परिभोग की तो बात ही दूर ! हे आर्याओ ! तुम शिक्षित हो, बहुत जानकार हो, बहुत पढ़ी हो, बहुत-से नगरों और ग्रामों में यावत् भ्रमण करती हो, राजाओं और ईश्वरों-युवराजों आदि के घरों में प्रवेश करती हो तो हे आर्याओ ! तुम्हारे पास कोई चूर्ण-योग, मंत्रयोग, कामणयोग, हृदयोड्डायन, काया का आकर्षण करने वाला, आभियोगिक, वशीकरण, कौतुककर्म, भूतिकर्म अथवा कोई सेल, कंद, छाल, बेल, शिलिका, गोली, औषध या भेषज ऐसी हैं, जो पहले जानी हो ? जिससे मैं फिर तेतलिपुत्र की इष्ट हो सकूँ ?”
पोट्टिला के द्वारा इस प्रकार कहने पर उन आर्याओं ने अपने दोनों कान बन्द कर लिये। उन्होंने पोट्टिला से कहा- 'देवानुप्रिये ! हम निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियाँ हैं । अतएव ऐसे वचन हमें कानों से श्रवण करना भी नहीं कल्पता तो इस विषय का उपदेश देना या आचरण करना तो कल्प ही कैसे सकता हैं ? हाँ, देवानुप्रिये ! हम तुम्हें अद्भुत या अनेक प्रकार के केवलिप्ररूपित धर्म का भलीभाँति उपदेश दे सकती हैं ।' तत्पश्चात् पोट्टिला ने उन आर्याओं से कहा- हे आर्याओ ! मैं आपके पास से केवलिप्ररूपित धर्म सुनना चाहती हूँ । तब उन आर्याओं ने पोट्टिला को अद्भुत या अनेक प्रकार के धर्म का उपदेश दिया । पोहिला धर्म का उपदेश सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट होकर इस प्रकार बोली'आर्याओं ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ । जैसा आपने कहा, वह वैसा ही है । अतएव मैं आपके पास से पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत वाले श्रावक के धर्म को अंगीकार करना चाहती हूँ ।' तब आर्याओं ने कहा- देवानुप्रिये ! जैसे सुख उपजे, वैसा करो ।
तत्पश्चात् उस पोट्टिला ने उन आर्याओं से पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत वाला केवलिप्ररूपित धर्म अंगीकार किया । उन आर्याओं को वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके उन्हें विदा किया । तत्पश्चात् पोट्टिला श्रमणोपासिका हो गई, यावत् साधुसाध्वियों को प्रासुक - अचित्त, एषणीय-आधाकर्मादि दोषों से रहित - कल्पनीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन, औषध, भेषज एवं प्रातिराहिक - वापिस लौटा देने के योग्य पीढ़ा, पाटा, शय्या उपाश्रम और संस्तारक- बिछाने के लिए घास आदि प्रदान करती हुई विचरने लगी ।
[१५२] एक बार किसी समय, मध्य रात्रि में जब वह कुटुम्ब के विषय में चिन्ता करता जाग रही थी, तब उसे विचार उत्पन्न हुआ मैं पहले तेतलिपुत्र को इष्ट थी, अब अनिष्ट हो गई हूँ; यावत् दर्शन और परिभोग का तो कहना ही क्या है ? अतएव मेरे लिए सुव्रता आर्या के निकट दीक्षा ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है ।' पौट्टिला दूसरे दिन प्रभात होने पर वह