Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 251
________________ २५० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद आनन्द पोषधशाला में मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए अन्तिम संलेखना, स्वीकार किए आराधना-रत हैं । अनेक लोगों से यह बात सुनकर, गौतम के मन में ऐसा भाव, चिन्तन, विचार या संकल्प उठा-मैं श्रमणोपासक आनन्द के पास जाऊं और उसे देखें । ऐसा सोचकर वे जहां कोल्लाक सन्निवेश था, श्रमणोपासक आनन्त था, पोषध-शाला थी, वहां गए । [१८] श्रमणोपासक आनन्त ने भगवान् गौतम को आते हुए देखा । देखकर वह (यावत्) अत्यन्त प्रसन्न हुआ, भगवान् गौतम को वन्दन-नमस्कार कर बोला-भगवन् ! मैं घोर तपश्चर्या से इतना क्षीण हो गया हूं कि नाड़ियां दीखने लगी हैं । इसलिए देवानुप्रिय के आपके पास आने तथा चरणों में वन्दना करने में असमर्थ हूं । अत एव प्रभो ! आप ही स्वेच्छापूर्वक, अनभियोग से यहां पधारें, जिससे मैं वन्दन, नमस्कार कर सकूँ । तब भगवान् गौतम, जहां आनन्द श्रमणोपासक था, वहां गये । श्रमणोपासक आनन्द ने तीन बार मस्तक झुकाकर भगवान् गौतम के चरणों में वन्दन, नमस्कार किया । वन्दन, नमस्कार कर वह यों बोला-भगवन् ! क्या घर में रहते हुए एक गृहस्थ को अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो सकता है ? गौतम ने कहा-हो सकता है । आनन्द बोला-भगवन् ! एक गृहस्थ की भूमिका में विद्यमान मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है, जिससे मैं पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में पांच-सौ, पांच-सौ योजन तक का लवण समुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में हिमवान्-वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प-तक तथा अधोदिशा में प्रथम नारक-भूमि रत्न-प्रभा में लोलुपाच्युतनामक नरक तक जानता हूं, देखता हूं । तब भगवान् गौतम ने श्रमणोपासक आनन्द से कहा-गृहस्थ को अवधि-ज्ञान उत्पन्न हो सकता है, पर इतना विशाल नहीं । इसलिए आनन्द ! तुम इस स्थान की आलोचना करो, तदर्थ तपःकर्म स्वीकार करो । श्रमणोपासक आनन्द भगवान् गौतम से बोला-भगवन् ! क्या जिन-शासन में सत्य, तत्त्वपूर्ण, तथ्य-सद्भूत भावों के लिए भी आलोचना स्वीकार करनी होती है ? गौतम ने कहा-ऐसा नहीं होता । आनन्द बोला-भगवन् ! जिनशासन में सत्य भावों के लिए आलोचना स्वीकार नहीं करनी होती तो भन्ते ! इस स्थानके लिए आप ही आलोचना स्वीकार करें । . ___ श्रमणोपासक आनन्द के यों कहने पर भगवान् गौतम के मन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा-उत्पन्न हुआ । वे आनन्द के पास से खाना हुए । जहां दूतीपलाश चैत्य था, भगवान् महावीर थे, वहां आए । श्रमण भगवान् महावीर के न अधिक दूर, न अधिक नजदीक गमन-आगमन का प्रतिक्रमण किया, एषणीय-अनेषणीय की आलोचना की । आहारपानी भगवान् को दिखलाकर वन्दन-नमस्कार कर वह सब कहा जो भगवान् से आज्ञा लेकर भिक्षा के लिए जाने के पश्चात् घटित हुआ था ! भगवन् ! उक्त स्थान के लिए क्या श्रमणोपासक आनन्द को आलोचना स्वीकार करनी चाहिए या मुझे ? श्रमण भगवान् महावीर बोले-गौतम ! इस स्थान के लिए तुम ही आलोचना करो तथा इसके लिए श्रमणोपासक आनन्द से क्षमापना भी । भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर का कथन, 'आप ठीक फरमाते हैं', यों कहकर विनयपूर्वक सुना । उस स्थान के लिए आलोचना स्वीकार की एवं श्रमणोपासक आनन्द से क्षमा-याचना की । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए । [१९] यों श्रमणोपासक आनन्द ने अनेकविध शीलव्रत यावत् आत्मा को भावित

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