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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
शीवानंदा भी श्रमणोपासिका होकर श्रमणनिर्ग्रन्थो का सत्कार करती हुइ विचरण करने लगी । [१४] तदन्तर श्रमणोपासक आनन्द को अनेकविध शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान - पोषधोपवास आदि द्वारा आत्म-भावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए । जब पन्द्रहवां वर्ष आधा व्यतीत हो चुका था, एक दिन आधी रात के बाद धर्म- जागरण करते हुए आनन्द के मन में ऐसा अन्तर्भाव - चिन्तन, आन्तरिक मांग, मनोभाव या संकल्प उत्पन्न हुआवाणिज्यग्राम नगर में बहुत से मांडलिक नरपति, ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशील पुरुष आदि के अनेक कार्यों में मैं पूछने योग्य एवं सलाह लेने योग्य हूं, अपने सारे कुटुम्ब का मैं आधार हूं। इस व्याक्षेप के कारण मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म - प्रज्ञप्ति के अनुरूप आचार का सम्यक् परिपालन नहीं कर पा रहा हूं । इसलिए मेरे लिए यही श्रेयस्कर है, मैं कल प्रभात हो जाने पर, मैं पूरण की तरह यावत् कुटुम्बीजनो को निमंत्रणा करके यावत् अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त करूंगा - अपने मित्र - गण तथा ज्येष्ठ पुत्र को पूछ कर कल्ला - सन्निवेश में स्थित ज्ञातकुल की पोषध - शाला का प्रतिलेखन कर भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप आचार का परिपालन करूंगा । यों आनन्द ने संप्रेक्षणकिया । वैसा कर, दूसरे दिन अपने मित्रों, जातीय जनों आदि को भोजन कराया । तत्पश्चात् उनका प्रचुर पुष्प, वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, माला एवं आभूषणों से सत्कार किया, सम्मान किया। उनके समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को बुलाया । बुलाकर, जैसा सोचा था, वह सब उसे कहा - पुत्र ! वाणिज्यग्राम नगर में मैं बहुत से मांडलिक राजा, ऐश्वर्यशाली पुरुषों आदि से सम्बद्ध हूं, यावत् मै समुचित धर्मोपासना कर नहीं पाता । अतः इस समय मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि तुमको अपने कुटुम्ब के मेढि, प्रमाण, आधार एवं आलम्बन के रूप में स्थापित कर मैं यावत् समुचित धर्मोपासना में लग जाऊं ।
तब श्रमणोपासक आनन्द के ज्येष्ठ पुत्र ने 'जैसी आपकी आज्ञा' यों कहते हुए अत्यन्त विनयपूर्वक अपने पिता का कथन स्वीकार किया । श्रमणोपासक आनन्द ने अपने मित्र - वर्ग, जातीय जन आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में अपने स्थान पर स्थापित किया । वैसा कर उपस्थित जनों से उसने कहा- महानुभावो ! आज से आप में से कोई भी मुझे विविध कार्यों के सम्बन्ध में न कुछ पूछें और न परामर्श ही करें, मेरे हेतु अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि आहार तैयार न करें और न मेरे पास लाएं। फिर आनन्द ने अपने ज्येष्ठ पुत्र, मित्र - वृन्द जातीय जन आदि की अनुमति ली । अपने घर से प्रस्थान किया । वाणिज्य ग्राम नगर से, जहां कोल्लाक सन्निवेश था, ज्ञातकुल एवं ज्ञातकुल की पोषधशाला थी, वहां पहुंचा । पोषध - शाला का प्रमार्जन किया - शौच एवं लघुशंका के स्थान की प्रतिलेखना की । वैसा कर दर्भ-का संस्तारक-लगाया, उस पर स्थित होकर पोषधशाला में पोषध स्वीकार कर श्रमण भगवान् महावीर के पास स्वीकृत धर्म- प्रज्ञप्ति के अनुरूप साधना- निरत हो गया । [१५] तदनन्तर श्रमणोपासक आनन्द ने उपासक - प्रतिमाएं स्वीकार की । पहली उपासक-प्रतिमा उसने यथाश्रुत - यथाकल्प - यथामार्ग, यथातत्त्व - सहज रूप में ग्रहण की, उसका पालन किया, उसे शोधित किया तीर्ण किया - कीर्तित किया - आराधित किया ।
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[१६] श्रमणोपासक आनन्द ने तत्पश्चात् दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवीं तथा ग्यारहवीं प्रतिमा की आराधना की । इस प्रकार श्रावक - प्रतिमा आदि के रूप में स्वीकृत उत्कृष्ट, विपुल प्रयत्न तथा तपश्चरण से श्रमणोपासक आनन्द का