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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
आजीविकोपासक सकडालपुत्र के समक्ष एक देव प्रकट हुआ । छोटी-छोटी घंटियों से युक्त उत्तम वस्त्र पहने हुए आकाश में अवस्थित उस देव ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहादेवानुप्रिय ! कल प्रातः काल यहां महामाहन - अप्रतिहत ज्ञान, दर्शन के धारक, अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के ज्ञाता, अर्हत्-जिन - सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीनों लोक जिनकी सेवा एवं उपासना की वांछा लिए रहते हैं, देव, मनुष्य तथा असुर सभी द्वारा अर्चनीय - वन्दनीय - नमस्करणीय, यावत् पर्युपासनीय-तथ्य कर्म - सम्पदा - संप्रयुक्त - पधारेंगे । तुम उन्हें वन्दन करना, प्रातिहारिकपीठ - फलक- शय्या - संस्तारक - आदि हेतु उन्हें आमंत्रित करना । यों दूसरी बार व तीसरी बार कह कर जिस दिशा से प्रकट हुआ था, उसी दिशा की ओर लौट गया ।
उस देव द्वारा यों कहे जाने पर आजीविकोपासक सकडालपुत्र के मन में ऐसा विचार आया मनोरथ, चिन्तन और संकल्प उठा- मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, महामाहन, अप्रतिम ज्ञान-दर्शन के धारक, सत्कर्म - सम्पत्तियुक्त मंखलिपुत्र गोशालक कल यहां पधारेंगे । तब मैं उनकी वंदना, यावत् पर्युपासना करूंगा तथा प्रातिहारिक हेतु आमंत्रित करूंगा ।
[४३] तत्पश्चात् अगले दिन प्रातः काल भगवान् महावीर पधारे । परिषद् जुड़ी, भगवान् की पर्युपासना की । आजीविकोपासक सकडालपुत्र ने यह सुना कि भगवान् महावीर पोलासपुर नगर मैं पधारे हैं । उसने सोचा- मैं जाकर भगवान् की वन्दना, यावत् पर्युपासना करूं । यो सोच कर उसने स्नान किया, शुद्ध, सभायोग्य वस्त्र पहने । थोड़े से बहुमूल्य आभूषणों से देह को अलंकृत किया, अनेक लोगों को साथ लिए वह अपने घर से निकला, पोलासपुर नगर से सहस्त्राम्रवन उद्यान में, जहां भगवान महावीर विराजित थे, आया । तीन बार आदक्षिणा- प्रदक्षिणा की, वन्दन - नमस्कार किया यावत् पर्युपासना की । तब श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र को तथा विशाल परिषद् की धर्म देशना दी ।
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श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा - सकडालपुत्र ! कल दोपहर के समय तुम जब अशोकवाटिका में थे तब एक देव तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ, आकाशस्थित देव ने तुम्हें यों कहा- कल प्रातः अर्हत्, केवली आएगे । भगवान् ने सकडालपुत्र को पर्युपासना तक सारा वृत्तान्त कहा । फिर पूछा- सकडालपुत्र ! क्या ऐसा हुआ ? सकडालपुत्र बोला- ऐसा ही हुआ । तब भगवान् ने कहा- सकडालपुत्र ! उस देव ने मंखलिपुत्र गोशालक को लक्षित कर वैसा नहीं कहा था । श्रमण भगवान् महावीर द्वारा यों कहे जाने पर आजीविकोपासक सकडालपुत्र के मन में ऐसा विचार आया- श्रमण भगवान् महावीर ही महामाहन, उत्पन्न ज्ञान, दर्शन के धारक तथा सत्कर्म - सम्पत्ति युक्त हैं । अतः मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार कर प्रातिहारिक पीठ, फलक हेतु आमंत्रित करूं । श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार किया और बोला- भगवन् ! पोलासपुर नगर के बाहर मेरी पांच सौ कुम्हारगिरी की कर्मशालाएं हैं । आप वहां प्रातिहारिक पीठ, संस्तारक ग्रहण कर विराजें । भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र का यह निवेदन स्वीकार किया तथा उसकी पांच सौ कुम्हारगिरी की कर्मशालाओं में प्रासुक, शुद्ध प्रातिहारिक पीठ, फलक, संस्तारक ग्रहण कर भगवान् अवस्थित हुए ।
[४४] एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र हवा लगे हुए मिट्टी के बर्तन कर्मशाला के भीतर से बाहर लाया और उसने उन्हें धूप में रखा । भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा-सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन कैसे बने ? आजीविकोपासक सकडालपुत्र