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उपासकदशा-७/४४
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बोला-भगवन् ! पहले मिट्टी की पानी के साथ गूंधा जाता है, फिर राख और गोबर के साथ उसे मिलाया जाता है, उसे चाक पर रखा जाता है, तब बहुत से करवे, यावत् कूपे बनाए जाते हैं । तब श्रमण भगवान् महावीर ने पूछा-सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन क्या प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं उद्यम द्वारा बनते हैं, अथवा उसके बिना बनते हैं ? आजीविकोपासक सकडालपुत्र ने श्रमण भगवान् महावीर से कहा-भगवन् ! प्रयत्न, पुरुषार्थ तथा उद्यम के बिना बनते हैं। प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि का कोई स्थान नहीं है, सभी भाव-नियत हैं ।
तब श्रमण भगवान् महावीर ने कहा-सकडालपुत्र ! यदि कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को चुरा ले या यावत् बाहर डाल दे अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगे, तो उस पुरुष को तुम क्या दंड दोगे? सकडालपुत्र बोला-भगवन् ! मैं उसे फटकारूंगा या पीढूंगा या यावत् असमय में ही उसके प्राण ले लूंगा | भगवान् महावीर बोले-सकडालपुत्र ! यदि उद्यम यावत् पराक्रम नहीं है । सर्वभाव निश्चित हैं तो कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को नहीं चुराता है न उन्हें उठाकर बाहर डालता है
और न तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग ही भोगता है, न तुम उस पुरुष को फटकारते हो, न पीटते हो न असमय में ही उसके प्राण लेते हो ।
यदि तुम मानते हो कि वास्तव में कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए मिट्टी के बर्तनों को यावत् उठाकर बाहर डाल देता है अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगता है, तुम उस पुरुष को फटकारते हो या यावत् असमय में ही उसके प्राण ले लेते हो, तब तुम प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि के न होने की तथा होने वाले सब कार्यों के नियत होने की जो बात कहते हो, वह असत्य है । इससे आजीविकोपासक सकडालपुत्र को संबोध प्राप्त हुआ। सकडालपुत्र ने श्रमण भगवन् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और उनसे कहाभगवन् ! मैं आपसे धर्म सुनना चाहता हूं । तब श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र को तथा उपस्थित परिषद् की धर्मोपदेश दिया ।
[४५] आजीविकोपासक सकडालपुत्र श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुनकर अत्यन्त प्रसन्न एवं संतुष्ट हुआ और उसने आनन्द की तरह श्रावक-धर्म स्वीकार किया । विशेष यह कि सकडालपुत्र के परिग्रह के रूप में एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं, एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के साधन-सामग्री में लगी थीं | उसके एक गोकुल था, जिसमें दस हजार गायें थीं । सकडालपुत्र ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया । वहां से चला, पोलासपुर नगर के बीच से गुजरात हुआ, अपने घर अपनी पत्नी अग्निमित्रा के पास आया और बोला-देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान् महावीर पधारे हैं, तुम जाओ, उनकी वंदना, पर्युपासना करो, उनसे पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावक-धर्म स्वीकार करो । श्रमणोपासक सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने 'आप ठीक कहते हैं' यों कहकर विनयपूर्वक अपने पति का कथन स्वीकार किया । तब श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने अपने सेवकों को बुलाया और कहा-देवानुप्रियों ! तेज चलने वाले, एक जैसे खुर, पूंछ तथा अनेक रंगों से चित्रित सींग वाले, गले में सोने के गहने और जोत धारण किए, गले से लटकती चाँदी की घंटियों सहित नाक में उत्तम सोने के तारों से मिश्रित पतली सी सूत की नाथ से जुड़ी रास के सहारे वाहकों द्वारा सम्हाले हुए, नीले कमलों से बने आभरणयुक्त मस्तक वाले, दो युवा बैलों द्वारा खींचे