Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 262
________________ उपासकदशा-६/३९ २६१ अंगूठी और दुपट्टा लेकर आकाश में चला गया । यावत् हे कुंडकौलिक ! क्या यह ठीक है? भगवन् ! ऐसा ही हुआ । तब भगवान् ने जैसा कामदेव से कहा था, उसी प्रकार उससे कहाकुंडकौलिक ! तुम धन्य हो । श्रमण भगवान् महावीर ने उपस्थित श्रमणों और श्रमणियों को सम्बोधित कर कहा-आर्यो ! यदि घर में रहने वाले गृहस्थ भी अन्य मतानुयायियों को अर्थ, हेतु, प्रश्न, युक्ति तथा उत्तर द्वारा निरुत्तर कर देते हैं तो आर्यो ! द्वादशांगरूप गणिपिटक काअध्ययन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थ तो अन्य मतानुयायियों को अर्थ द्वारा निरुत्तर करने में समर्थ हैं ही । श्रमण भगवान महावीर का यह कथन उन साधु-साध्वियों ने 'ऐसा ही है भगवन् !' -यों कह कर स्वीकार किया । श्रमणोपासक कुंडकौलिक ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, प्रश्न पूछे, समाधान प्राप्त किया तथा जिस दिशा से वह आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया । भगवान् महावीर अन्य जनपदों में विहार कर गए । [४०] तदनन्तर श्रमणोपासक कुंडकौलिक को व्रतों की उपासना द्वारा आत्म-भावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए । जब पन्द्रहवां वर्ष आधा व्यतीत हो चुका था, एक दिन आधी रात के समय उसके मन में विचार आया, जैसा कामदेव के मन में आया था । उसी की तरह अपने बड़े पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त कर वह भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप पोषधशाला में उपासनारत रहने लगा । उसने ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की आराधना की । अन्त में देह-त्याग कर वह अरुणध्वज विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। यावत् सब दुःखो का अन्त करेगा । अध्ययन-६ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण ( अध्ययन-७ 'सहालपुत्र' ) [४१] पोलासपुरनामक नगर था । सहस्त्राम्रवन उद्यान था । जितशत्रु राजा था । पोलासपुर में सकडालपुत्रनामक कुम्हार रहता था, जो आजीविक-सिद्धान्त का अनुयायी था । वह लब्धार्थ-गृहीतार्थ-पृष्टार्थ-विनिश्चितार्थ अभिगतार्थ हुए था । वह अस्थि और मजा पर्यन्त अपने धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा था । उसका निश्चित विश्वास था कि आजीविक मत ही अर्थ यही परमार्थ है । इसके सिवाय अन्य अनर्थ-अप्रयोजनभूत हैं । यों आजीविक मत के अनुसार वह आत्मा को भावित करता हुआ धर्मानुरत था । आजीविक मतानुयायी सकडालपुत्र की एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं । एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार थीं तथा एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं-साधन-सामग्री में लगी थीं । उसके एक गोकुल था, जिसमें दस हजार गायें थीं । आजीविकोपासक सकडालपुत्र की पत्नी का नाम अग्निमित्रा था । पोलासपुर नगर के बाहर आजीविकोपासक सकडालपुत्र कुम्हारगिरी के पांच सौ आपणथीं । वहां भोजन तथा मजदूरी रूप वेतन पर काम करने वाले बहुत से पुरुष प्रतिदिन प्रभात होते ही, करवे, गडुए, परातें, घड़े, छोटे घड़े, कलसे, बड़े घड़े, मटके, सुराहियां, उष्ट्रिका-कूपे बनाने में लग जाते थे । भोजन व मजदूरी पर काम करने वाले दूसरे बहुत से पुरुष सुवह होते ही बहुत से करवे तथा कूपों के साथ सड़क पर अवस्थित हो, बिक्री में लग जाते थे । [४२] एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र दोपहर के समय अशोकवाटिका में गया, मंखलिपुत्र गोशालक के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप वहां उपासनारत हुआ ।

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