Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 250
________________ उपासकदशा-१/१६ २४९ शरीर सूख गया, शरीर की यावत् उसके नाड़ियां दीखने लगीं। एक दिन आधी रात के बाद धर्मजागरण करते हुए आनन्द के मन में ऐसा अन्तर्भाव या संकल्प उत्पन्न हुआ-शरीर में इतनी कृशता आ गई है कि नाड़ियां दीखने लगी हैं । मुझ में उत्थान-बल-वीर्य-पुरुषाकार पराक्रम श्रद्धा-धृति-संवेग है । जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, जिन–श्रमण भगवान् महावीर विचरण कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं कल सूर्योदय होने पर अन्तिम मरणान्तिक संलेखना स्वीकार कर लूं, खान-पान का प्रत्याख्यान कर दूं, मरण की कामना न करता हुआ, आराधनारत हो जाऊं । आनन्द ने यों चिन्तन किया । दूसरे दिन सवेरे अन्तिम मरणान्तिक संलेखना स्वीकार की, खान-पान का परित्याग किया, मृत्यु की कामना न करता हुआ वह आराधना में लीन हो गया । तत्पश्चात् श्रमणोपासक आनन्द को एक दिन शुभ अध्यवसाय-शुभ परिणाम-विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण, अवधि-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अवधि-ज्ञान उत्प्न हो गया । फलतः वह पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में पांच-सौ, पांच-सौ योजन तक का लवण समुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में हिमवान्-वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प-तक तथा अधोदिशा में प्रथम नारक-भूमि रत्नप्रभा में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति युक्त, लोलुपाच्युतनामक नरक तक जानने लगा, देखने लगा । [१७] उस काल वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय भगवान् महावीर समवस्त हुए । परिषद् जुड़ी, धर्म सुनकर वापिस लौट गई । उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्त्र-संस्थान-संस्थित थे-कसौटी पर खचित स्वर्णरेखा की आबा लिए हुए कमल के समान जो गौर वर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वीतप्ततपस्वी-जो उराल–घोरगुण-घोर तपस्वी-घोर ब्रह्मचर्यवासी-उत्क्षिप्तशरीर-जो विशाल तेजोलेश्या अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे, बेले-बेले निरन्तर तप का अनुष्ठान करते हुए, संयमाराधना तथा तपश्चरणों द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए विहार करते थे । बेले के पारणे का दिन था, भगवान् गौतम ने पहले पहर में स्वाध्याय किया, दूसरे पहर में ध्यान किया, तीसरे पहर में अत्वरित-अचल-असंभ्रान्त-मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया, पात्रों और वस्त्रों का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन किया । पात्र उठाये, जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आए । उन्हें वंदन, नमस्कार किया । यों बोले-भगवन् ! आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर मैं आज बेले के पारणे के दिन वाणिज्यग्राम नगर में उच्च निम्न मध्यम-सभी कलों में गृहसमुदानी-भिक्षा-चर्या के लिए जाना चाहता हूं । भगवान् बोले-देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, बिना प्रतिबन्ध-विलम्ब किए, करो । श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त कर भगवान् गौतम ने दूतीपलाश चैत्य से प्रस्थान किया । बिना शीघ्रता किए, स्थिरतापूर्वक अनाकुल भाव से युग-परिमाण-मार्ग का परिलोकन करते हुए, ईर्यासमितिपूर्वक चलते हुए, वाणिज्यग्राम नगर आए । आकर वहां उच्च, निम्न एवं मध्यम कुलों में समुदानी-भिक्षा-हेतु घूमने लगे । भगवान् गौतम ने व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में वर्णित भिक्षाचर्या के विधान के अनुरूप घूमते हुए यथापर्याप्त-उतना आहार-पानी भली-भांति ग्रहण कर वाणिज्यग्राम नगर से चले । चलकर जब कोल्लाक सन्निवेश के न अधिक दूर, न अधिक निकट से निकल रहे थे, तो बहुत से लोगों को बात करते सुना । देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी-श्रमणोपासक

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