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उपासकदशा-१/१९
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किया । बीस वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय-पालन किया, ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का अनुसरण किया, एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन संपन्न कर, आलोचना, प्रतिक्रमण कर मरण-काल आने पर समाधिपूर्वक देह-त्याग किया । वह सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान-कोण में स्थित अरुण-विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहां अनेक देवों की आयु-स्थिति चार पल्योपम की होती है । श्रमणोपासक आनन्द की आयु-स्थिति भी चार पल्योपम की है । भन्ते ! आनन्द उस देवलोक से आयु, भव, एवं स्थिति के क्षय होने पर देव शरीर का त्याग कर कहां जायगा ? कहां उत्पन्न होगा ? गौतम ! आनन्द महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा-सिद्ध-गति या मुक्ति प्राप्त करेगा । अध्ययन-१ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-२ 'कामदेव') [२०] हे भगवन् ! यावत् सिद्धि-प्राप्त भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के प्रथम अध्ययन का यदि यह अर्थ-आशय प्रतिपादित किया तो भगवन् ! उन्होंने दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया है ? जम्ब ! उस काल-उस समय-चम्पा नगरी थी । पूर्णभद्र नामक चैत्य था । राजा जितशत्रु था । कामदेव गाथापति था । उसकी पत्नी का नाम भद्रा था । गाथापति कामदेव का छः करोड़ स्वर्ण-खजाने में, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में, तथा छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव में लगी थीं । उसके छह गोकुल थे । प्रत्येक गोकुल में दस हजार गायें थी । भगवान् महावीर पधारे । समवसरण हुआ । गाथापति आनन्द की तरह कामदेव भी अपने घर से चला भगवान् के पास पहुंचा, श्रावक-धर्म स्वीकार किया ।
[२१] (तत्पश्चात् किसी समय) आधी रात के समय श्रमणोपासक कामदेव के समक्ष एक मिथ्यादृष्टि, मायावी देव प्रकट हआ । उस देव ने एक विशालकाय पिशाच का रूप धारण किया | उसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है-उस पिशाच का सिर गाय को चारा देने की बांस की टोकरी जैसा था । बाल-चावल की मंजरी के तन्तुओं के समान रूखे और मोटे थे, भूरे रंग के थे, चमकीले थे । ललाट बड़े मटके के खप्पर जैसा बड़ा था । भौहें गिलहरी की पूंछ की तरह बिखरी हुई थीं, देखने में बड़ी विकृत और बीभत्स थीं । “मटकी' जैसी आंखें, सिर से बाहर निकली थीं, देखने में विकृत और बीभत्स थीं । कान टूटे हुए सूप-समान बड़े भद्दे और खराब दिखाई देते थे । नाक मेंढ़े की नाक की तरह थी । गड्ढों जैसे दोनों नथुने ऐसे थे, मानों जुड़े हुए दो चूल्हे हों । घोड़े की पूछ जैसी उसकी मूंछे भूरी थीं, विकृत और बीभत्स लगती थीं । उसके होठ ऊंट के होठों की तरह लम्बे थे । दांत हल की लोहे की कुश जैसे थे । जीभ सूप के टुकड़े जैसी थी । ठुड्डी हल की नोक की तरह थी । कढ़ाही की ज्यों भीतर धंसे उसके गाल खड्डों जैसे लगते थे, फटे हुए, भूरे रंग के, कठोर तथा विकराल थे ।
उसके कन्धे मृदंग जैसे थे । वक्षस्थल-नगर के फाटक के समान चौड़ी थी । दोनों भुजाएं कोष्ठिका-समान थीं । उसकी दोनों हथेलियां मूंग आदि दलने की चक्की के पाट जैसी थीं । हाथों की अंगुलियां लोढी के समान थीं । उसके नाखून सीपियों जैसे थे । दोनों स्तन नाई की उस्तरा आदि की तरह छाती पर लटक रहे थे । पेट लोहे के कोष्ठक समान गोलाकार। नाभि बर्तन के समान गहरी थी । उसका नेत्र-छीके की तरह था । दोनों अण्डकोष फैले हुए दो थैलों जैसे थे । उसकी दोनों जंघाएं एक जैसी दो कोठियों के समान थीं । उसके घुटने