________________
उपासकदशा-१/२३
२५३
विशालकाय, हाथी का रूप धारण किया । वह हाथी सुपुष्ट सात अंगों से युक्त था । उसकी देह-रचना सुन्दर और सुगठित थी । वह आगे से उदग्र-पीछे से सूअर के समान झुका हुआ था । उसकी कुक्षि-बकरी की कुक्षि की तरह सटी हुई थी । उसका नीचे का होठ और सूंड लम्बे थे । मुंह से बाहर निकले हुए दांत उजले और सफेद थे । वे सोने की म्यान में प्रविष्ट थे । उसकी सूंड का अगला भाग कुछ खींचे हुए धनुष की तरह सुन्दर रूप में मुड़ा हुआ था। उसके पैर कछुए के समान प्रतिपूर्ण और चपटे थे । उसके बीस नाखून थे । उसकी पूंछ देह से सटी हुई थी । वह हाथी मद से उन्मत्त था । बादल की तरह गरज रहा था । उसका वेग मन और पवन के वेग को जीतने वाला था ।
ऐसे हाथी के रूप की विक्रिया करके पूर्वोक्त देव जहां पोषधवाला थी, जहां श्रमणोपासक कामदेव था, वहां आया । श्रमणोपासक कामदेव से पूर्व वर्णित पिशाच की तरह बोला-यदि तुम अपने व्रतों का भंग नहीं करते हो तो मैं तुमको अपनी सूंड से पकड़ लूंगा । पोषधशाला से बाहर से जाऊंगा । ऊपर आकाश में उछालूंगा । उछाल कर अपने तीखे और मूसल जैसे दांतों से झेलूंगा । नीचे पृथ्वी पर तीन बार पैरों से रौदूंगा, जिससे तुम आर्त ध्यान और विकट दुःख से पीडित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक् हो जाओगे हाथी का रूप धारण किए हुए देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव निर्भय भाव से उपासना-रत रहा ।
[२४] हस्तीरूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत देखा, तो उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर श्रमणोपासक कामदेव को वैसा ही कहा, जैसा पहले कहा था । पर, श्रमणोपासक कामदेव पूर्ववत् निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत रहा । हस्तीरूपधारी उस देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से उपासना में लीन देखा तो अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपनी सूंड से उसको पकड़ा । आकाश में ऊंचा उछाला । नीचे गिरते हुए को अपने तीखे और मूसल जैसे दांतों से झेला और झेल कर नीचे जमीन पर तीन बार पैरों से रौंदा । श्रमणोपासक कामदेव ने वह असह्य वेदना झेली ।
जब हस्तीरूपधारी देव श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित नहीं कर सका, तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर धीरे-धीरे पीछे हटा। हट कर पोषधशाला से बाहर निकला । विक्रियाजन्य हस्ति-रूप का त्याग किया । वैसा कर दिव्य, विकराल सर्प का रूप धारण किया । वह सर्प उग्रविष, प्रचण्डविष, घोरविष और विशालकाय था । वह स्याही और मूसा जैसा काला था । उसके नेत्रों में विष और क्रोध भरा था । वह काजल के ढेर जैसा लगता था । उसकी आंखें लाल-लाल थीं । उसकी दुहरी जीभ चंचल थी-कालेपन के कारण वह पृथ्वी की वेणी जैसा लगता था । वह अपना उत्कटस्फुट-कुटिल-जटिल, कर्कश-विकट-फन फैलाए हुए था । लुहार की धौंकनी की तरह वह फुकार कर रहा था । उसका प्रचण्ड क्रोध रोके नहीं रुकता था । वह सर्प रूप धारी देव जहां पोषधशाला थी, जहां श्रमणोपासक कामदेव था, वहां आया । श्रमणोपासक कामदेव से बोला-अरे कामदेव ! यदि तुम शील, व्रत भंग नहीं करते हो, तो मैं अभी सर्राट करता हुआ तुम्हारे शरीर पर चढूंगा । पूंछ की ओर से तुम्हारे गले में तीन लपेट लगाऊंगा । अपने तीखे, जहरीले दांतों से तुम्हारी छाती पर डंक मारूंगा, जिससे तुम आर्त ध्यान और विकट दुःख से पीडित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक् हो जाओगे-मर जाओगे ।।
[२५] सर्परूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भय देखा तो वह अत्यन्त