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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१६/१७६
तब पद्मनाभ की सेना का दूसरा तिहाई भाग उस धनुष की टंकार से हत मथिल हो गया यावत् इधर-उधर भाग छूटा । तब पद्मनाभ की सेना का एक तिहाई भाग ही शेष रह गया । अतएव पद्मनाभ सामर्थ्यहीन, बलहीन, वीर्यहीन और पुरुषार्थ पराक्रम से हीन हो गया । वह कृष्ण के प्रहार को सहन करने या निवारण करने में असमर्थ होकर शीघ्रतापूर्वक, त्वरा के साथ, अमरकंका राजधानी में जा घुसा । उसने अमरकंका राजधानी के द्वार बंद करके वह नगररोध के लिए सज्ज होकर स्थित हो गया ।
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तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव जहाँ अमरकंका राजधानी थी, वहाँ गये । रथ ठहराया । नीचे उतरे । वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुए । समुद्घात करके उन्होंने एक महान् नरसिंह का रूप धारण किया । फिर जोर-जोर के शब्द करके पैरों का आस्फालन किया । कृष्ण वासुदेव के जोर-जोर की गर्जना के साथ पैर पछाड़ने से अमरकंका राजधानी के प्रकार गोपुर अट्टालिका चरिका और तोरण गिर गये और श्रेष्ठ महल तथा श्रीगृह चारों ओर से तहस-नहस होकर सरसराट करके धरती पर आ पड़े । तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा अमरकंका राजधानी को पूर्वोक्त प्रकार से बुरी तरह भग्न हुई जानकर भयभीत होकर द्रौपदी देवी की शरण में गया । तब द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ राजा से कहा- देवानुप्रिय ! क्या तुम नहीं जानते कि पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव का विप्रिय करते हुए तुम मुझे यहां लाये हो ? किन्तु जो हुआ सो हुआ । अब देवानुप्रिय ! तुम जाओ स्नान करो । पहनने और ओढ़ने के वस्त्र धारण करो । पहने हुए वस्त्र का छोर नीचा रखो । अन्तःपुर की रानियों आदि परिवार को साथ में ले लो । प्रधान और श्रेष्ठ रत्न भेंट के लिए लो । मुझे आगे कर लो । इस प्रकार चलकर कृष्ण वासुदेव को दोनों हाथ जोड़कर उनके पैरों में गिरो और उनकी शरण ग्रहण करो । उत्तम पुरुष प्रणिपतित होते हैंउस समय पद्मनाभ ने द्रौपदी देवी के इस अर्थ को अंगीकार किया । द्रौपदी देवी के कथनानुसार स्नान आदि करके कृष्ण वासुदेव की शरण में गया । दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहने लगा- 'मैंने आप देवानुप्रिय की ॠद्धि देख ली, पराक्रम देख लिया । हे देवानुप्रिय ! मैं क्षमा की प्रार्थना करता हूँ, आप यावत् क्षमा करें । यावत् मैं पुनः ऐसा नहीं करूंगा ।' इस प्रकार कहकर उसने हाथ जोड़े । पैरों में गिरा । उसने अपने हाथों द्रौपदी देवी सौंपी । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा - ' अरे पद्मनाभ अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले ! क्या तू नहीं जानता कि तू मेरी भगिनी द्रौपदी देवी को जल्दी से यहाँ ले आया है ? ऐसा होने पर भी, अब तुझे मुझसे भय नहीं है !' इस प्रकार कह कर पद्मनाभ को छुट्टी दी । द्रौपदी देवी को ग्रहण किया और रथ पर आरूढ़ हुए । पाँच पाण्डवों के समीप आये । द्रौपदी देवी को हाथों-हाथ पांचों पाण्डवों को सौंप दिया । तत्पश्चात् पाँचों पाण्डवों के साथ, छठे आप स्वयं कृष्ण वासुदेव छह रथों में बैठकर, लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जिधर जम्बूद्वीप था और जिधर भारतवर्ष था उधर जाने को उद्यत हुए ।
[१७७] उस काल और उस समय में, धातकीखंडद्वीप में, पूर्वार्ध भाग के भरतक्षेत्र में, चम्पा नामक नगरी थी । पूर्णभद्र चैत्य था । उस में कपिल वासुदेव राजा था । वह महान् हिमवान् पर्वत के समान महान् था । उस काल और उस समय में मुनिसुव्रत अरिहन्त चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे । कपिल वासुदेव ने उनसे धर्मोपदेश श्रवण किया । उसी समय मुनिसुव्रत अरिहन्त से धर्म श्रवण करते-करते कपिल वासुदेव ने कृष्ण वासुदेव के