Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 237
________________ २३६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद तीन बार वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोली-भगवन् ! यह लोक आदीप्त है इत्यादि देवानन्दा के समान जानना । यावत् मैं चाहती हूँ कि आप स्वयं ही मुझे दीक्षा प्रदान करें । तत्पश्चात् पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्व ने स्वयमेव काली कुमारी को, पुष्पचूला आर्या को शिष्यनी के रूप में प्रदान किया । तब पुष्पचूला आर्या ने काली कुमारी को स्वयं ही दीक्षित किया । यावत् वह काली प्रव्रज्या अंगीकार करके विचरने लगी । तत्पश्चात् वह काली आर्या ईर्यासमिति से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी आर्या हो गई । तदनन्तर उस काली आर्या ने पुष्पचूला आर्या के निकट सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा बहुत-से चतुर्थभक्त-उपवास, आदि तपश्चरण करती हुई विचरने लगी । तत्पश्चात् किसी समय, एक बार काली आर्या शरीरबाकुशिका हो गई । अतएव वह बारबार हाथ धोने लगी, पैर धोने लगी, सिर धोने लगी, मुख धोने लगी, स्तनों के अन्तर धोने लगी, काँखों के अन्तर-प्रदेश धोने लगी और गुह्यस्थान धोने लगी । जहाँ-जहाँ वह कायोत्सर्ग, शय्या या स्वाध्याय करती थी, उस स्थान पर पहले जल छिड़क कर बाद में बैठती अथवा सोती थी । तब पुष्पचूला आर्या ने उस काली आर्या से कहा-'देवानुप्रिये ! श्रमणी निर्ग्रन्थियों को शरीरबकुशा होना नहीं कल्पता और तुम देवानुप्रिये ! शरीरबकुशा हो गई हो । बार-बार हाथ धोती हो, यावत् पानी छिड़ककर बैठती और सोती हो । अतएव देवानुप्रिये ! तुम इस पापस्थान की आलोचना करो, यावत् प्रायश्चित्त-अंगीकार करो ।' तब काली आर्या ने पुष्पचूला आर्या की यह बात स्वीकार नहीं की । यावत् वह चुप बनी रही। वे पुष्पचूला आदि आर्याएँ, काली आर्या की बार-बार अवहेलना करने लगीं, निन्दा करने लगी, चिढ़ने लगीं, गर्दा करने लगीं, अवज्ञा करने लगी और बार-बार इस अर्थ को रोकने लगीं । निग्रंथी श्रमणियों द्वारा बार-बार अवहेलना की गई यावत् रोकी गई उस काली आर्यिका के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ-'जब मैं गृहवास में थी, तब मैं स्वाधीन थी, किन्तु जब से मैंने मुंडित होकर गृहत्याग कर अनगारिता की दीक्षा अंगीकार की है, तब से मैं पराधीन हो गई हूँ। अतएव कल रजनी के प्रभातयुक्त होने पर यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर अलग उपाश्रय ग्रहण करके रहना ही मेरे लिए श्रेयस्कर होगा । दूसरे दिन सूर्य के प्रकाशमान होने पर उसने पृथक् उपाश्रय ग्रहण कर लिया । वहाँ कोई रोकने वाला नहीं रहा, हटकने वाला नहीं रहा, अतएव वह स्वच्छंदमति हो गई और बार-बार हाथ-पैर आदि धोने लगी, यावत् जल छिड़क-छिड़क कर बैठने और सोने लगी। तत्पश्चात् वह काली आर्या पासत्था पासत्थविहारिणी, अवसन्ना, अवसन्नविहारिणी, कुशीला, कुशीलविहारिणी, यथाछंदा, यथाछंदविहारिणी, संसक्ता तथा संसक्तविहारिणी होकर, बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय अर्द्धमास की संलेखना द्वारा आत्मा को क्षीण करके तीस बार के भोजन को अनशन से छेद कर, उस पापकर्म की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना ही, कालमास में काल करके चमरचंचा राजधानी में, कालावतंसक नामक विमान में, उपपात सभा में, देवशय्या में, देवदूष्य वस्त्र से अंतरित होकर अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना द्वारा, काली देवी के रूप में उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् काली देवी तत्काल सूर्याभ देव की तरह यावत् भाषापर्याप्ति और

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