Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 235
________________ २३४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद वह दिव्य वृद्धि कहाँ चली गई ?' भगवान् ने उत्तर में कूटाकारशाला का दृष्टान्त दिया । 'अहो भगवन् ! काली देवी महती कृद्धि वाली है । भगवन् ! काली देवी को वह दिव्य देवर्धि पूर्वभव में क्या करने से मिली ? देवभव में कैसे प्राप्त हुई ? और किस प्रकार उसके सामने आई, अर्थात् उपभोग में आने योग्य हुई ?' यहाँ भी सूर्याभ देव के समान ही कथन समझना । भगवान् ने कहा-'हे गौतम ! उस काल और उस समय में, इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, आमलकल्पा नामक नगरी थी । उस नगरी के बाहर ईशान दिशा में आम्रशालवन नामक चैत्य था । उस नगरी में जितशत्रु नामक राजा था । उस आमलकल्पा नगरी में काल नामक गाथापति रहता था । वह धनाढ्य था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था । काल नामक गाथापति की पत्नी का नाम कालश्री था । वह सुकुमार हाथ-पैर आदि अवयवों वाली यावत् मनोहर रूप वाली थी । उस काल गाथापति की पुत्री और कालश्री भार्या की आत्मजा काली नामक बालिका थी । वह बड़ी थी और बड़ी होकर भी कुमार थी। वह जीर्णा थी और जीर्ण होते हुए कुमारी थी । उसके स्तन नितंब प्रदेश तक लटक गये थे। वर उससे विरक्त हो गये थे, अतएव वह वर-रहित अविवाहित रह रही थी। उस काल और उस समय में पुरुषादानीय एवं धर्म की आदि करने वाले पार्श्वनाथ अरिहंत थे । वे वर्धमान स्वामी के समान थे । विशेषता इतनी कि उनका शरीर नौ हाथ ऊँचा था तथा वे सोलह हजार साधुओं और अड़तीस हजार साध्वियों से परिवृत थे । यावत् वे पुरुषादानीय पार्श्व तीर्थंकर आम्रशालवन में पधारे । वन्दना करने के लिए परिषद् निकली, यावत् वह परिषद् भगवान् की उपासना करने लगी । तत्पश्चात् वह काली दारिका इस कथा का अर्थ प्राप्त करके अर्थात् भगवान् के पधारने का समाचार जानकर हर्षित और संतुष्ट हृदय वाली हुई । जहाँ मातापिता थे, वहाँ गई । दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोली-'हे माता-पिता ! पार्श्वनाथ अरिहन्त पुरुषादानीय, धर्मतीर्थ की आदि करने वाले यावत् यहाँ विचर रहे हैं । अतएव हे माता-पिता ! आपकी आज्ञा हो तो मैं पार्श्वनाथ अरिहन्त पुरुषादानीय के चरणों में वन्दना करने जाना चाहती हूँ । माता-पिता ने उत्तर दिया-'देवानुप्रिये ! तुझे जैसे सुख उपजे, वैसा कर । धर्म कार्य में विलम्ब मत कर । तत्पश्चात् वह काली नामक दारिका का हृदय माता-पिता की आज्ञा पाकर हर्षित हुआ। उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया तथा साफ, सभा के योग्य, मांगलिक और श्रेष्ठ वस्त्र धारण किये । अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को भूषित किया । फिर दासियों के समूह से परिवृत होकर अपने गृह से निकली । निकल कर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आकर धर्मकार्य में प्रयुक्त होने वाले श्रेष्ठ यान पर आरूढ़ हुई । तत्पश्चात् काली नामक दारिका धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ़ होकर द्रौपदी के समान भगवान् को वन्दना करके उपासना करने लगी । उस समय पुरुषादानीय तीर्थंकर पार्श्व ने काली नामक दारिका को और उपस्थित विशाल जनसमूह को धर्म का उपदेश दिया । तत्पश्चात् उस काली दारिका ने पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्वनाथ के पास से धर्म सुनकर और उसे हृदयंगम करके, हर्षितहृदय होकर यावत् पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्वनाथ को तीन बार वन्दना की, नमस्कार किया । ‘भगवन् ! मैं

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