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ज्ञाताधर्मकथा-२/१/१/२२०
निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ । यावत् आप जैसा कहते हैं, वह वैसा ही है । केवल, हे देवानुप्रिय ! मैं अपने माता-पिता से पूछ लेती हूँ, उसके बाद मैं आप देवानुप्रिय के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करूंगी।' भगवान् ने कहा- 'देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, करो ।'
तत्पश्चात् पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्व के द्वारा इस प्रकार कहने पर वह काली नामक दारिका हर्षित एवं संतुष्ट हृदय वाली हुई । उसने पार्श्व अरिहंत को वन्दन और नमस्कार किया। करके वह उसी धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ़ हुई । आरूढ़ होकर पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्व के पास से, आम्रशालवन नामक चैत्य से बाहर निकली और आमलकल्पा नगरी की ओर चली । बाहर की उपस्थानशाला पहुँची । धार्मिक एवं श्रेष्ठ यान को ठहराया और फिर उससे नीचे उतरी । फिर अपने माता-पिता के पास जाकर और दोनों हाथ जोड़कर यावत् बोली- 'हे माता- -पिता ! मैंने पार्श्वनाथ तीर्थंकर से धर्म सुना है और उस धर्म की मैंने इच्छा की है, पुनः पुनः इच्छा की है । वह धर्म मुझे रुचा है । इस कारण हे मात तात ! मैं संसार के भय से उद्विग्न हो गई हूँ, जन्म-मरण से भयभीत हो गई हूँ । आपकी आज्ञा पाकर पार्श्व अरिहन्त के समीप मुंडित होकर, गृहत्याग कर अनगारिता की प्रव्रज्या धारण करना चाहती हूँ ।' माता-पिता ने कहा- जैसे सुख उपजे, करो । धर्मकार्य में विलंब न करो ।'
तत्पश्चात् काल नामक गाथापति ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार करवाया । तैयार करवाकर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों, स्वजनों, संबन्धियों और परिजनों को आमंत्रित किया । स्नान किया । फिर यावत् विपुल पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य और अलंकार से उनका सत्कार-सम्मान करके उन्हीं ज्ञाति, मित्र, निजक, स्वजन, संबन्धी और परिजनों के सामने काली नामक दारिका को श्वेत एवं पीत अर्थात् चांदी और सोने के कलशों से स्नान करवाया ।
सर्व अलंकारों से विभूषित किया । पुरुषसहस्त्रवाहिनी शिबिका पर आरूढ़ करके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ परिवृत होकर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ, यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ, आमलकल्पा नगरी के बीचों-बीच होकर निकले । आम्रशालवन की ओर चले । चलकर छत्र आदि तीर्थंकर भगवान् के अतिशय देखे । अतिशयों पर दृष्टि पड़ते ही शिकि रोक दी गई। फिर माता-पिता काली नामक दारिका को शिबिका से नीचे उतार कर और फिर उसे आगे करके जिस ओर पुरुषादानीय तीर्थंकर पार्श्व थे, उसी ओर गये । जाकर भगवान् को वन्दना की, नमस्कार किया । पश्चात् इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रिय ! काली नामक दारिका हमारी पुत्री है । हमें यह इष्ट है और प्रिय है, यावत् इसका दर्शन भी दुर्लभ है । देवानुप्रिय ! यह संसार-भ्रमण के भय से उद्विग्न होकर आप देवानुप्रिय के निकट मुंडित होकर यावत् प्रव्रजित होने की इच्छा करती है । अतएव हम यह शिष्यनीभिक्षा देवानुप्रिय को अर्पित करते हैं । देवानुप्रिय ! शिष्यनीभिक्षा स्वीकार करें । तब भगवान् बोले- 'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे, करो । धर्मकार्य में विलम्ब न करो ।'
तत्पश्चात् काली कुमारी ने पार्श्व अरिहंत को वन्दना की, नमस्कार किया । वह ईशान दिशा के भाग में गई । वहाँ जाकर उसने स्वयं ही आभूषण, माला और अलंकार उतारे और स्वयं ही लोच किया । फिर जहाँ पुरुषादानीय अरहन्त पार्श्व थे वहाँ आई । आकर पार्श्व अरिहन्त को