________________
ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१८/२०८
२२३
बहुत खेदयुत वचनों से उन्होंने यह बात उससे कही । तब धन्य-सार्थवाह बहुत-से लड़कों, लड़कियों, बच्चों, बच्चियों, कुमारों और कुमारिकाओं के माता-पिताओं से यह बात सुन कर एकदम कुपित हुआ । उसने ऊँचे-नीचे आक्रोश-वचनों से चिलात दास-चेट पर आक्रोश किया उसका तिरस्कार किया, भर्त्सना की, धमकी दी, तर्जना की और ऊँची-नीची ताड़नाओं से ताड़ना की और फिर उसे अपने घर से बाहर निकाल दिया ।
[२०९] धन्य सार्थवाह द्वारा अपने घर से निकाला हुआ यह चिलात दासचेटक राजगृह नगर में श्रृंगाटकों यावत् पथों में अर्थात् गली-कूचों में, देवालयों में, सभाओं में, प्याउओं में, जुआरियों के अड्डों में, वेश्याओं के घरों में तथा मद्यपानगृहों में मजे से भटकने लगा । उस समय उस दास-चेट चिलात को कोई हाथ पकड़ कर रोकने वाला तथा वचन से रोकने वाला न रहा, एतएव वह निरंकुश बुद्धि वाला, स्वेच्छाचारी, मदिरापान में आसक्त, चोरी करने में आसक्त, मांसभक्षण में आसक्त, जुआ में आसक्त, वेश्यासक्त तथा पर-स्त्रियों में भी लम्पट हो गया । उस समय राजगह नगर से न अधिक दूर और न अधिक समीप प्रदेश में, आग्नेयकोण में सिंहगुफा नामक एक चोरपल्ली थी । वह पल्ली विषम गिरिनितंब के प्रान्त भाग में बसी हुई थी । बांस की झाड़ियों के प्राकार से घिरी हुई थी । अलग-अलग टेकरियों के प्रपात रूपी परिखा से युक्त थी । उसमें जाने-आने के लिए एक ही दरवाजा था, परन्तु भाग जाने के लिए छोटे-छोटे अनेक द्वार थे । जानकर लोग ही उसमें से निकल सकते और उसमें प्रवेश कर सकते थे । उसके भीतर ही पानी था । उस पल्ली से बाहर आस-पास में पानी मिलना अत्यन्त दुर्लभ था । चुराये हुए माल को छीनने के लिए आई हुई सेना भी उस पल्ली का कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी । ऐसी थी वह चोरपल्ली !
उस सिंहगुफा पल्ली में विजय नामक चोर सेनापति रहता था । वह अधार्मिक यावत् वह अधर्म की ध्वजा था । बहुत नगरों में उसका यश फैला हुआ था । वह शूर था, दृढ़ प्रहार करने वाला, साहसी और शब्दवेधी था । वह उस सिंहगुफा में पांच सौ चोरों का अधिपतित्व करता हुआ रहता था । वह चोरों का सेनापति विजय तस्कर दूसरे बहुतेरे चोरों के लिए, जारों राजा के अपकारियों, ऋणियों, गठकटों, सेंध लगाने वालों, खात खोदने वालों, बालघातकों, विश्वासघातियों, जुआरिओं तथा खण्डरक्षकों के लिए और मनुष्यों के हाथ-पैर आदि अवयवों को छेदन-भेदन करने वाले अन्य लोगों के लिए कुडंग के समान शरणभूत था। वह चोर सेनापति विजय तस्कर राजगृह नगर के अग्निकोण में स्थित जनपदप्रदेश को, ग्राम के घात द्वारा, नगरपात द्वारा, गायों का हरण करके, लोगों को कैद करके, पथिकों को मारकूट कर तथा सेंध लगा कर पुनः पुनः उत्पीड़ित करता हुआ तथा विध्वस्त करता हुआ, लोगों को स्थानहीन एवं धनहीन बना रहा था ।
__ तत्पश्चात् वह चिलात दास-पेट राजगृह नगर में बहुत-से अर्थाभिशंकी, चौराभिशंकी, दाराभिशंकी, धनिकों और जुआरियों द्वारा पराभव पाया हुआ तिरस्कृत होकर राजगृह नगर से बाहर निकला । जहाँ सिंहगुफा नामक चोरपल्ली थी, वहाँ पहुँचा । चोरसेनापति विजय के पास उसकी शरण में जाकर रहने लगा । तत्पश्चात् वह दास-चेट चिलात विजय नामक चोरसेनापति के यहाँ प्रधान खड्गधारी या हो गया । अतएव जब भी वह विजय चोरसेनापति ग्राम का घात करने के लिए पथिकों को मारने-कूटने के लिए जाता था, उस समय दास-चेट चिलात