Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 231
________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद तत्पश्चात् कण्डरीक अनगार ने पुण्डरीक राजा की इस बात का आदर नहीं किया । यावत् वह मौन बने रहे । तब पुण्डरीक ने दूसरी बार और तीसरी बार भी यही कहा । तत्पश्चात् इच्छा न होने पर भी विवशता के कारण, लज्जा से और बड़े भाई के गौरव के कारण पुण्डरीक राजा से पूछा- पूछ कर वह स्थविर के साथ बाहर जनपदों में विचरने लगे । उस समय स्थविर के साथ-साथ कुछ समय तक उन्होंने उग्र उग्र विहार किया । उसके बाद वह श्रमणत्व से थक गये, श्रमणत्व से ऊब गये और श्रमणत्व से निर्भर्त्सना को प्राप्त हुए । साधुता के गुणों से रहित हो गये । अतएव धीरे-धीरे स्थविर के पास से खिसक गये । जहाँ पुण्डरीकिणी नगरी थी और जहाँ पुण्डरीक राजा का भवन था, उसी तरफ आये । आकर अशोकवाटिका में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर बैठ गये । बैठ कर भग्नमनोरथ एवं चिन्तामग्न हो रहे । तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा की धाय- माता जहाँ अशोकवाटिका थी, वहाँ गई । वहाँ जाकर उसने कण्डरीक अनगार को अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर भग्रमनोरथ यावत् चिन्तामग्न देखा । यह देखकर वह पुण्डरीक राजा के पास गई और उनसे कहने लगीदेवानुप्रिय ! तुम्हारा प्रिय भाई कण्डरीक अनगार अशोकवाटिका में, उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्ट पर भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता में डूबा बैठा है । २३० तब पुण्डरीक राजा, धाय- माता की यह बात सुनते और समझते ही संभ्रान्त हो उठा। उठ कर उन्तःपुर के परिवार के साथ अशोकवाटिका में गया । जाकर यावत् कण्डरीक को तीन बार इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो कि यावत् दीक्षित हो । मैं अधन्य हूँ कि यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पाता । अतएव देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो यावत् तुमने मानवीय जन्म और जीवन का सुन्दर फल पाया है ।' पुंडरीक राजा के द्वारा इस प्रकार कहने पर कण्डरीक चुपचाप रहा । दूसरी बार और तीसरी बार कहने पर भी यावत् मौन ही बना रहा । तब पुण्डरीक राजा ने कंडरीक से पूछा- 'भगवन् ! क्या भोगों से प्रयोजन है ? तब कंडरीक ने कहा - 'हाँ है । ' तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा - 'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही कंडरीक के महान् अर्थव्यय वाले एवं महान् पुरुषों के योग्य राज्याभिषेक की तैयारी करो ।' यावत् कंडरीक राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया गया । वह मुनिपर्याय त्याग कर राजसिंहासन पर आसीन हो गया । [२१६] तत्पश्चात् पुण्डरीक ने स्वयं पंचमुष्टिक लोच किया और स्वयं ही चातुर्याम धर्म अंगीकार किया । कंडरीक के आचारभाण्ड ग्रहण किये और इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण किया । ' स्थविर भगवान् को वन्दन - नमस्कार करने और उनके पास से चातुर्याम धर्म अंगीकार करने के पश्चात् ही मुझे आहार करना कल्पता है ।' इस प्रकार का अभिग्रह धारण करके पुण्डरीक पुण्डरीकिणी नगरी से बाहर निकला । अनुक्रम से चलता हुआ, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाता हुआ, जिस ओर स्थविर भगवान् थे, उसी ओर गमन करने को उद्यत हुआ । [२१७] प्रणीत आहार करने वाले कण्डरीक राजा को अति जागरण करने से और मात्रा से अधिक भोजन करने के कारण वह आहार अच्छी तरह परिणत नहीं हुआ, पच नहीं सका । उस आहार का पाचन न होने पर, मध्य रात्रि के समय कण्डरीक राजा के शरीर में

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