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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१७/१८८
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में रहे हुए तीतुर के शब्द को सहन न करता हुआ तीतुर पक्षी वध और बंधन पाता है ।
[१८९] चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत और रूपों में अनुरक्त होने वाले पुरुष; स्त्रियों के स्तन, जघन, वदन, हाथ, पैर, नेत्रों में तथा गर्विष्ठ बनी हुई स्त्रियों की विलासयुक्त गति में रमण करते हैं
[१९०] परन्तु चक्षुइन्द्रिय की दुर्दान्तता से इतना दोष है कि बुद्धिहीन पतंगा जलती हुई आग में जा पड़ता है, उसी प्रकार मनुष्य भी वध-बंधन के दुःख पाते हैं ।
[१९१] सुगंध में अनुरक्त हुए और घ्राणेन्द्रिय के वश में पड़े हुए प्राणी श्रेष्ठ अगर, श्रेष्ठ धूप, विविध ऋतुओं में वृद्धि को प्राप्त माल्य तथा अनुलेपन विधि में रमण करते हैं ।
[१९२] परन्तु घ्राणेन्द्रिय की दुर्दान्तता से इतना दोष होता है कि औषधि की गंध से सर्प अपने बिल से बाहर निकल आता है । (और पकडा जाता है ।)
[१९३] रस में आसक्त और जिह्वा इन्द्रिय के वशवर्ती हुए प्राणी कड़वे, तीखे, कसैले, खट्टे एवं मधुर रस वाले बहुत खाद्य, पेय, लेह्य पदार्थों में आनन्द मानते हैं ।
[१९४] किन्तु जिह्वा इन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष उत्पन्न होता है कि गल में लग्न होकर जल से बाहर खींचा हुआ मत्स्य स्थल में फेंका जाकर तड़पता है ।
[१९५] स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत हुए प्राणी स्पर्शेन्द्रिय की अधीनता से पीड़ित होकर विभिन्न ऋतुओं में सेवन करने से सुख उत्पन्न करने वाले तथा विभव सहित, हितकारक तथा मन को सुख देने वाले माला, स्त्री आदि पदार्थों में रमण करते हैं ।
[१९६] किन्तु स्पर्शनेन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष होता है कि लोहे का तीखा अंकुश हाथी के मस्तक को पीड़ा पहुँचाता है ।
[१९७] कल, रिभित एवं मधुर तंत्री, तलताल तथा बाँसुरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में जो आसक्त नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते ।
[१९८] स्त्रियों के स्तन, जघन, मुख, हाथ, पैर, नयन तथा गर्वयुक्त विलास वाली गति आदि समस्त रूपों में जो आसक्त नहीं होते, वे वशा-मरण नहीं मरते ।
[१९९] उत्तम अगर, श्रेष्ठ धूप, विविध ऋतुओं में वृद्धि को प्राप्त होने वाले पुष्पों की मालाओं तथा श्रीखण्ड आदि के लेपन की गन्ध में जो आसक्त नहीं होते, उन्हें वशा-मरण नहीं मरना पड़ता ।
[२००] तिक्त, कटुक, कसैले, खट्टे और मीठे खाद्य, पेय और लेह्य पदार्थों के आस्वादन में जो गृद्ध नहीं होते, वे वशार्तमरण नहीं मरते ।
[२०१] हेमन्त आदि विभिन्न ऋतुओं में सेवन करने से सुख देने वाले, वैभव सहित, हितकर और मन को आनन्द देने वाले स्पर्शों में जो गृद्ध नहीं होते, वे वशार्तमरण नहीं मरते।
[२०२] साधु को भद्र श्रोत्र के विषय शब्द प्राप्त होने पर कभी तुष्ट नहीं होना चाहिए और पापक शब्द सुनने पर रुष्ट नहीं होना चाहिए ।
[२०३] शुभ अथवा अशुभ रूप चक्षु के विषय होने पर-साधु को कभी न तुष्ट होना चाहिए और न रुष्ट होना चाहिए ।
[२०४] घ्राण-इन्द्रिय को प्राप्त हुए शुभ अथवा अशुभ गंध में साधु को कभी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिए ।