Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 228
________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१८/२११ २२७ पिता हो, गुरु हो, जनक हो, देवता-स्वरूप हो, स्थापक हो, प्रतिष्ठापक हो, कष्ट से रक्षा करने वाले हो, दुर्व्यसनों से बचाने वाले हो, अतः हे तात ! हम आपको जीवन से रहित कैसे करें? कैसे आपके मांस और रुधिर का आहार करें ? हे तात ! आप मुझे जीवन-हीन कर दो और मेरे मांस तथा रुधिर का आहार करो और इस अग्रामिक अटवी को पार करो ।' इत्यादि पूर्ववत् यहाँ तक कि अर्थ, धर्म और पुण्य के भागी बनो । तत्पश्चात् दूसरे पुत्र ने धन्य-सार्थवाह से कहा-'हे तात ! हम गुरु और देव के समान ज्येष्ठ बन्धु को जीवन से रहित नहीं करेंगे। हे तात ! आप मुझको जीवन से रहित कीजिए, यावत् आप सब पुण्य के भागी बनिए ।' तीसरे, चौथे और पांचवें पुत्र ने भी इसी प्रकार कहा । तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह ने पांचों पुत्रों के हृदय की इच्छा जान कर पांचों पुत्रों से इस प्रकार कहा-'पुत्रो ! हम किसी को भी जीवन से रहित न करें । यह सुंसुमा का शरीर निष्प्राण निश्चेष्ट और जीवन द्वारा त्यक्त है, अतएव हे पुत्रो ! सुंसुमा दारिका के मांस और रुधिर का आहार करना हमारे लिए उचित होगा । हम लोग उस आहार से स्वस्थ होकर राजगृह को पा लेंगे । धन्य-सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर उन पांच पुत्रों ने यह बात स्वीकार की। तब धन्य-सार्थवाह ने पांचों पुत्रों के साथ अरणि की । फिर शर बनाया । दोनों तैयार करके शर से अरणि का मंथन किया । अग्नि उत्पन्न की । अग्नि धौंकी, उसमें लकड़ियाँ डाली, अग्नि प्रज्वलित करके सुसुमा दारिका का मांस पका कर उस मांस का और रुधिर का आहार किया। उस आहार से स्वस्थ होकर वे राजगृह नगरी तक पहुँचे । अपने मित्रों एवं ज्ञातिजनों, स्वजनों, परिजनों आदि से मिले और विपुल धन, कनक, रत्न आदि के तथा धर्म, अर्थ एवं पुण्य के भागी हुए । तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह ने सुसुमा दारिका के बहुत-से लौकिक मृतक-कृत्य किए, तदनन्तर कुछ काल बीत जाने पर वह शोकरहित हो गया । [२१२] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारे । उस समय धन्य-सार्थवाह वन्दना करने के लिए भगवान् के निकट पहुँचा । धर्मोपदेश सुन कर दीक्षित हो गया । क्रमशः म्यारह अंगों का वेत्ता मुनि हो गया । अन्तिम समय आने पर एक मास की संलेखना करके सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ । वहाँ से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में संयम धारण करके सिद्धि प्राप्त करेगा । हे जम्बू ! जैसे उस धन्यसार्थवाह ने वर्ण के लिए, रूप के लिए, बल के लिए अथवा विषय के लिए सुंसुमा दारिका के मांस और रुधिर का आहार नहीं किया था, केवल राजगृह नगर को पाने के लिए ही आहार किया था । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु या साध्वी वमन को झराने वाले, पित्त को, शुक्र को और शोणित को झराने वाले यावत् अवश्य ही त्यागने योग्य इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए, बल के लिए अथवा विषय के लिए आहार नहीं करते हैं, केवल सिद्धिगति को प्राप्त करने के लिए आहार करते हैं, वे इसी भव में बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं के अर्चनीय होते हैं एवं संसार-कान्तार को पार करते हैं । जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने अठारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । जैसा मैंने सुना वैसा ही तुम्हें कहा है । अध्ययन-१८ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण

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