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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
और कहा-'देवानुप्रियो ! अरिहन्त अरिष्टनेमि अनुक्रम से विचरते हुए यावत् सुराष्ट्र जनपद में पधारे हैं, अतएव स्थविर भगवंत से पूछकर तीर्थंकर अरिष्टनेमि को वन्दना करने के लिए जाना हमारे लिये श्रेयस्कर है ।' परस्पर की यह बात स्वीकार करके वे जहाँ स्थविर भगवन्त थे, वहाँ गये । जाकर स्थविर भगवन्त को वन्दन-नमस्कार किया । उनसे कहा-'भगवन् ! आपकी आज्ञा पाकर हम अरिहंत अरिष्टनेमि को वन्दना करने हेतु जाने की इच्छा करते हैं ।' स्थविर ने अनुज्ञा दी–'देवानुप्रियो ! जैसे सुख हो, वैसा करो ।'
तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पांचों अनगारों ने स्थविर भगवान् से अनुज्ञा पाकर उन्हें वन्दना-नमस्कार किया । वे स्थविर के पास से निकले । निरन्तर मासखमण करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम आते हुए, यावत् जहाँ हस्तिकल्प नगर था, वहाँ पहुँचे । पहुँच कर हस्तिकल्प नगर के बाहर सहस्त्रभ्रवन नामक उद्यान में ठहरे । तत्पश्चात् युधिष्ठिर के सिवाय शेष चार अनगारों ने मासखमण के पारणक के दिन पहले प्रहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर में ध्यान किया । शेष गौतमस्वामी के समान वर्णन जानना । विशेष यह कि उन्होंने युधिष्ठिर अनगार से पूछा-भिक्षा की अनुमति माँगी । फिर वे भिक्षा के लिए जब अटन कर रहे थे, तब उन्होंने बहुत जनों से सुना-'देवानुप्रियो ! तीर्थंकर अरिष्टनेमि गिरिनार पर्वत के शिखर पर, एक मास का निर्जल उपवास करके, पांच सौ छत्तीस साधुओं के साथ काल-धर्म को प्राप्त हो गये हैं, यावत् सिद्ध, मुक्त, अन्तकृत् होकर समस्त दुःखों से रहित हो गये हैं ।'
तब युधिष्ठिर के सिवाय वे चारों अनगार बहुत जनों के पास से यह अर्थ सुन कर हस्तिकल्प नगर से बाहर निकले । जहाँ सहस्राम्रवन था और जहाँ युधिष्ठिर अनगार थे वहाँ पहुँचे । आहार-पानी की प्रत्युपेक्षणा की, प्रत्युपेक्षणा करके गमनागमन का प्रतिक्रमण किया। फिर एषणा-अनेषणा की आलोचना की । आलोचना करके आहार-पानी दिखलाया । दिखला कर युधिष्ठिर अनगार से कहा-'हे देवानुप्रिय ! यावत् कालधर्म को प्राप्त हुए हैं । अतः हे देवानुप्रिय ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि भगवान् के निर्वाण का वृत्तान्त सुनने से पहले ग्रहण किये हुए आहारपानी को परठ कर धीरे-धीरे शत्रुजय पर्वत पर आरूढ़ हों तथा संलेखना करके झोषणा का सेवन करके और मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरें रहें, इस प्रकार कह कर सबने परस्पर के इस अर्थ को अंगीकार किया । वह पहले ग्रहण किया आहार-पानी एक जगह परठ दिया । शत्रुजय पर्वत गए । शत्रुजय पर्वत पर आरूढ़ हुए । आरूढ़ होकर यावत् मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पांचों अनगारों ने सामायिक से लेकर चौदह पूर्वो का अभ्यास करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके, दो मास की संलेखना से आत्मा को झोषण करके, जिस प्रयोजन के लिए नग्नता, मुंडता आदि अंगीकार की जाती है, उस प्रयोजन को सिद्ध किया । उन्हें अनन्त यावत् श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुआ । यावत् वे सिद्ध हो गये ।
[१८३] दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् द्रौपदी आर्या ने सुव्रता आर्या के पास सामायिक से लेकर म्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया । अन्त में एक मास की संलेखना करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके तथा कालमास में काल करके ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में जन्म लिया । ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक में कितनेक देवों की दस सागरोपम की स्थिति है । उनमें द्रौपदी देव की भी दस