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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१६/१७६
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कहिए मुझे क्या करना है ? तब कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से कहा-'देवानुप्रिय ! द्रौपदी देवी यावत् पद्मनाभ राजा के भवन में हरण की गई है, अतएव तुम हे देवानुप्रिय ! पाँच पाण्डवों सहित छठे मेरे छह रथों को लवणसमुद्र में मार्ग दो, जिससे मैं अमरकंका राजधानी में द्रौपदी देवी को वापस छीनने के लिए जाऊँ ।'
तत्पश्चात् सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय ! जैसे पद्मनाभ राजा के पूर्व संगतिक देव ने द्रौपदी देवी का संहरण किया, उसी प्रकार क्या मैं द्रौपदी देवी को धातकीखंडद्वीप के भरत क्षेत्र से यावत् अमरकंका राजधानी में स्थित पद्मनाभ राजा के भवन से हस्तिनापुर ले जाऊँ ? अथवा पद्मनाभ राजा को उसके नगर, सैन्य और वाहनों के साथ लवणसमुद्र में फैंक दूं ? तब कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से कहा-'देवानुप्रिय ! तुम यावत् संहरण मत करो । देवानुप्रिय ! तुम तो पाँच पाण्डवों सहित छठे हमारे छह रथों को लवणसमुद्र में जाने का मार्ग दे दो । मैं स्वयं ही द्रौपदी देवी को वापिस लाने के लिए जाऊँगा।' तब सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'ऐसा ही हो-तथास्तु ।' ऐसा कह कर उसने पाँच पाण्डवों सहित छठे वासुदेव के छह रथों को लवणसमुद्र में मार्ग प्रदान किया।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने चतुरंगिणी सेना को विदा करके पाँच पाण्डवों के साथ छठे आप स्वयं छह रथों में बैठ कर लवणसमुद्र के मध्यभाग में होकर जाने लगे । जाते-जाते जहाँ अमरकंका राजधानी थी और जहाँ अमरकंका का प्रधान उद्यान था, वहाँ पहुँचे । पहुँचने के बाद रथ रोका और दारुक नामक सारथी को बुलाया । उसे बुलाकर कहा-'देवानुप्रिय ! तू जा और अमरकंका राजधानी में प्रवेश करके पद्मनाभ राजा के समीप जाकर उसके पादपीठ को अपने बाँयें पैर से आक्रान्त करके-ठोकर मार करके भाले की नोंक द्वारा यह पत्र देना । फिर कपाल पर तीन बल वाली भूकुटि चढ़ा कर, आँखें लाल करके, रुष्ट होकर, क्रोध करके, कुपित होकर और प्रचण्ड रूप धारण कर कहना-'अरे पद्मनाभ ! मौत की कामना करने वाले ! अनन्त कुलक्षणों वाले ! पुण्यहीन ! चतुर्दशी के दिन जन्मे हुए श्री, लज्जा और बुद्धि से हीन ! आज तू नहीं बचेगा । क्या तू नहीं जानता कि तू कृष्ण वासुदेव की भगिनी द्रौपदी देवी को यहाँ ले आया है ? खैर, जो हुआ सो हुआ, अब भी तू द्रौपदी देवी कृष्ण वासुदेव को लौटा दे अथवा युद्ध के लिए तैयार होकर बाहर निकल | कष्ण वासदेव पांच पाण्डवों के साथ छठे आप द्रौपदी देवी को वापिस छीनने के लिए अभी-अभी यहाँ आ पहुँचे हैं ।'
तत्पश्चात् वह दारुक सारथी कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर हर्षित और संतुष्ट हुआ । यावत् उसने यह आदेश अंगीकार किया । अमरकंका राजधानी में प्रवेश किया । पद्मनाभ के पास गया । वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् अभिनन्दन किया और कहास्वामिन् ! यह मेरी अपनी विनय-प्रतिपत्ति है । मेरे स्वामी के मुख से कही हुई आज्ञा दूसरी है । वह यह है । इस प्रकार कह कर उसने नेत्र लाल करके और क्रुद्ध होकर अपने वाम पैर से उसके पादपीठ को आक्रान्त किया । भाले की नोंक से लेख दिया । फिर कृष्ण वासुदेव का समस्त आदेश कह सुनाया, यावत् वे स्वयं द्रौपदी को वापिस लेने के लिए आ पहुँचे हैं। तत्पश्चात् पद्मनाभ ने दारुक सारथी के इस प्रकार कहने पर नेत्र लाल करके और क्रोध से कपाल पर तीन सल वाली भृकुटी चढ़ा कर कहा-'देवानुप्रिय ! मैं कृष्ण वासुदेव को द्रौपदी वापिस नहीं दूंगा । मैं स्वयं ही युद्ध करने के लिए सज्ज होकर निकलता हूँ।' इस प्रकार 514